वांछित मन्त्र चुनें

तम्व॒भि प्र गा॑यत पुरुहू॒तं पु॑रुष्टु॒तम् । इन्द्रं॑ गी॒र्भिस्त॑वि॒षमा वि॑वासत ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam v abhi pra gāyata puruhūtam puruṣṭutam | indraṁ gīrbhis taviṣam ā vivāsata ||

पद पाठ

तम् । ऊँ॒ इति॑ । अ॒भि । प्र । गा॒य॒त॒ । पु॒रु॒ऽहू॒तम् । पु॒रु॒ऽस्तु॒तम् । इन्द्र॑म् । गीः॒ऽभिः । त॒वि॒षम् । आ । वि॒वा॒स॒त॒ ॥ ८.१५.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:15» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:17» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:1


बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

ईश्वर की महिमा की स्तुति दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यों ! (पुरुहूतम्) बहुतों से आहूत और मन से ध्यात और (पुरुष्टुतम्) सर्वस्तुत (तम्+उ) उसी (इन्द्रम्) इन्द्र को (अभि+प्र+गायत) सब प्रकार से गाओ, हे मनुष्यों ! (तविषम्) उस महान् इन्द्र की (गीर्भिः) निज-२ भाषाओं से (आविवास) अच्छे प्रकार सेवा करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - उस इन्द्र को छोड़कर अन्य किसी को ध्येय, पूज्य और स्तुत्य न समझे ॥१॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अब इस सूक्त में परमात्मा का महत्त्व वर्णन करते हुए प्रथम वेदवाणियों द्वारा उसका कीर्तन करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (पुरुहूतम्) अनेकों से आहूत (पुरुष्टुतम्) अनेकों से स्तुत (तम्, इन्द्रम्, उ) उस परमात्मा का ही (अभिप्रगायत) सम्यक् गान करो और (गीर्भिः) वाणियों द्वारा (तविषम्) उस महान् का (आविवासत) परिचरण करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे सम्पूर्ण प्रजाजनो ! तुम सब मिलकर और पृथक्-२ भी उसी परमदेव परमात्मा की वेदवाणियों द्वारा स्तुतिगान करो, जिससे उस महान् देव का महत्त्व सब पर भले प्रकार प्रकट होकर मनुष्यमात्र उसी की उपासना में प्रवृत्त हो और जगत् के सम्पूर्ण नर-नारी एकमात्र उसी को अपना पूज्य देव मानें, जिसकी अनेक ऋषि, मुनि, महात्मा तथा विद्वान् आदि सृष्टि से पूजा=उपासना करते चले आये हैं ॥१॥
बार पढ़ा गया

शिव शंकर शर्मा

इन्द्रमहिम्नः स्तुतिं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! पुरुहूतम्=पुरुभिर्बहुभिर्मनुष्यैर्हूतमाहूतं मनसा ध्यातम्। पुरुष्टुतम्=सर्वस्तुतम्। तमु=तमेव इन्द्रम्। अभि+प्र+गायत=अभिमुखं प्रकर्षेण स्तुध्वम्। पुनः। तविषम्=महान्तं तमेवेन्द्रम्। गीर्भिः=स्वस्वभाषाभिः आविवास= परिचरत ॥१॥
बार पढ़ा गया

आर्यमुनि

अथास्मिन् सूक्ते परमात्ममहत्त्वं वर्णयन् तं कीर्तयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे जनाः ! (पुरुहूतम्) पुरुभिराहूतम् (पुरुष्टुतम्) पुरुभिः स्तुतं च (तम्, इन्द्रम्, उ) तं परमात्मानमेव (अभिप्रगायत) अभितः प्रख्यापयत (गीर्भिः) वाग्भिः (तविषम्) महान्तम् (आविवासत) परिचरत ॥१॥