इन्द्रे॑ण रोच॒ना दि॒वो दृ॒ळ्हानि॑ दृंहि॒तानि॑ च । स्थि॒राणि॒ न प॑रा॒णुदे॑ ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
indreṇa rocanā divo dṛḻhāni dṛṁhitāni ca | sthirāṇi na parāṇude ||
पद पाठ
इन्द्रे॑ण । रो॒च॒ना । दि॒वः । दृ॒ळ्हानि॑ । दृं॒हि॒तानि॑ । च॒ । स्थि॒राणि॑ । न । प॒रा॒ऽनुदे॑ ॥ ८.१४.९
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:14» मन्त्र:9
| अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:15» मन्त्र:4
| मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:9
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शिव शंकर शर्मा
ईश्वर की महिमा की स्तुति दिखलाते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - सर्वाधार वही परमात्मा है, यह इससे शिक्षा देते हैं। यथा−(दिवः) द्युलोक अर्थात् त्रिभुवन के (रोचना) शोभमान पृथिवीस्थ समुद्र आदि अन्तरिक्षस्थ मेघ प्रभृति, द्युलोकस्थ सूर्यादि दीप्यमान समस्त वस्तु इस प्रकार (इन्द्रेण) इन्द्र ने (दृढानि) दृढ की हैं और (दृंहितानि) बढ़ाई हैं, जिससे ये वस्तु (स्थिराणि) स्थिर होकर (न+पराणुदे) न कदापि विनाशशाली हों ॥९॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यों ! महामहाऽऽश्चर्यमय इस जगत् को देखो ! किस आधार पर यह सूर्य्य और पृथिवी आदि ठहरे हुए हैं। क्यों न अपने-२ स्थान से विचलित होकर ये नष्ट हो जाते हैं। हे मनुष्यों ! सबका आधार उसी को जानो और जानकर उसी को पूजो ॥९॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रेण) सूर्यसदृश योद्धा (रोचना, दिवः) रोचमान अन्तरिक्षस्थानों को (दृढानि) स्वयं दृढ़ करता और (दृंहितानि, च) अन्यों से दृढ़ कराता है (स्थिराणि) इस प्रकार से स्थिर करता है, जिससे (न, पराणुदे) शत्रुसमुदाय विचलित नहीं कर सकता ॥९॥
भावार्थभाषाः - वह प्रजापालक सम्राट् सूर्य्य के सदृश अपनी शक्ति को व्यापक बनाकर अपनी तथा दूसरे विद्वानों की बुद्धि की सहायता से पर्वतादि उच्चस्थानों में ऐसा दृढ़ दुर्ग बनावे, जिसको प्रतिपक्षी दल विचलित न कर सके ॥९॥
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शिव शंकर शर्मा
महिम्नः स्तुतिं दर्शयति।
पदार्थान्वयभाषाः - सर्वाधारः परमात्मैवास्तीत्यनया शिक्षते। यथा−दिवः=द्योतमानस्य द्युलोकस्य “दिव इत्युपलक्षणम्” तेन। त्रिलोकस्य। रोचना=रोचमानानि=शोभमानानि पृथिवीस्थानि समुद्रादीनि। अन्तरिक्षस्थानि=मेघप्रभृतीनि द्युलोकस्थानि=सूर्य्यादीनि समस्तानि दीप्यमानानि वस्तूनि। इन्द्रेण=परमात्मना तथा दृढानि कृतानि। च पुनः। दृंहितानि=वर्धितानि येन एतानि। स्थिराणि=स्थास्नूनि=अचलितानि। भूत्वा। न पराणुदे=न विनश्वरशीलानि=न विनाशशालीनि भवेयुरिति ॥९॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रेण) सूर्यसदृशो योद्धा (रोचना, दिवः) रोचमानानि अन्तरिक्षस्थानि स्थानानि (दृढानि) स्वयं दृढीकृतानि (दृंहितानि, च) अन्यैः दृढीकारितानि च (स्थिराणि) तथा भूतानि स्थिराणि कृतानि यथा (न, पराणुदे) चालयितुं न शक्ष्यन्ते ॥९॥