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यदि॑न्द्रा॒हं यथा॒ त्वमीशी॑य॒ वस्व॒ एक॒ इत् । स्तो॒ता मे॒ गोष॑खा स्यात् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad indrāhaṁ yathā tvam īśīya vasva eka it | stotā me goṣakhā syāt ||

पद पाठ

यत् । इ॒न्द्र॒ । अ॒हम् । यथा॑ । त्वम् । ईशी॑य । वस्वः॑ । एकः॑ । इत् । स्तो॒ता । मे॒ । गोऽस॑खा । स्या॒त् ॥ ८.१४.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:14» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

पुनः इन्द्र की प्रार्थना आरम्भ करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमदेव परमात्मन् ! (यथा) जिस प्रकार (एकः+इत्) एक ही (त्वम्) तू (वस्वः) सकल प्रकार के धनों के ऊपर अधिकार रखता है, वैसा ही (यद्) यदि (अहम्) मैं भी (ईशीय) सब प्रकार के धनों के ऊपर अधिकार रक्खूं और उनका स्वामी होऊँ, तो (मे) मेरा (स्तोता) स्तुतिपाठक भी (गोसखा+स्यात्) गो प्रभृति धनों का मित्र होवे। हे इन्द्र ! आपकी कृपा से मेरे स्तोता भी जैसे धनसम्पन्न होवें, वैसी कृपा हम लोगों पर कीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - जैसे वह ईश दान दे रहा है, तद्वत् हम धन पाकर दान देवें ॥१॥
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आर्यमुनि

अब इस सूक्त में राष्ट्रपति को उपदेश करते हुए उसका कर्तव्य कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे सूर्यसदृश योद्धा ! (यत्, अहम्) यदि मैं (यथा, त्वम्) आप सदृश (एकः, इत्) एक ही (वस्वः, ईशीय) रत्नों का ईश्वर होऊँ तो (मे, स्तोता) मेरा उपासक (गोषखा) पृथिवी भर का मित्रभूत (स्यात्) हो जाय ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में यह उपदेश किया है कि क्षात्रधर्म में स्थित भावी सम्राट् को चाहिये कि वह वर्तमान ऐश्वर्यसम्पन्न राजा के सदाचारों को देखकर उन्हीं का अनुकरण करे और सर्वदा यही उद्योग करता रहे, जिससे अपने अनुयायी कार्यसम्पादक किसी प्रजाजन को बिना अपराध पीड़ित न करे, क्योंकि प्रजा का सुखी होना ही साम्राज्य की चिरस्थिति में कारण है अर्थात् प्रजा के सुखी होने से ही साम्राज्य चिरकालस्थायी रह सकता है, अन्यथा नहीं ॥१॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनरपीन्द्रस्य प्रार्थनामारभते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र परमदेव ! यथा=येन प्रकारेण। त्वमेक इत्=त्वमेक एव। वस्वः=वसुनो वासयितृणो धनस्य। ईशिषे। तथैव। यद्=यदि। अहमपि धनस्य। ईशीय=स्वामी भवेयम्। तदा। मे=मम। स्तोता। गोसखा+स्यात्=गवाम्=गोप्रभृतीनां धनानां सखा=सुहृद् भवेत्। तव कृपया ममापि स्तोता यथा धनसम्पन्नः स्यात्। तथाऽस्माननुगृहाण ॥१॥
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आर्यमुनि

अथास्मिन् सूक्ते राष्ट्रपतिमुपदिशन् तत्कर्तव्यं कथयति।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे सूर्यसदृशयोद्धः ! (यत्, अहम्) यद्यहम् (यथा, त्वम्) त्वमिव (एकः, इत्) एक एव (वस्वः, ईशीय) धनानामीश्वरः स्याम् तदा (मे, स्तोता) ममोपासकः (गोषखा, स्यात्) पृथिव्या अपि मित्रभूतः स्यात् ॥१॥