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इ॒यं त॑ इन्द्र गिर्वणो रा॒तिः क्ष॑रति सुन्व॒तः । म॒न्दा॒नो अ॒स्य ब॒र्हिषो॒ वि रा॑जसि ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

iyaṁ ta indra girvaṇo rātiḥ kṣarati sunvataḥ | mandāno asya barhiṣo vi rājasi ||

पद पाठ

इ॒यम् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । गि॒र्व॒णः॒ । रा॒तिः । क्ष॒र॒ति॒ । सु॒न्व॒तः । म॒न्दा॒नः । अ॒स्य । ब॒र्हिषः॑ । वि । रा॒ज॒सि॒ ॥ ८.१३.४

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:4 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:4 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:4


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शिव शंकर शर्मा

पुनः वही विषय आ रहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - (गिर्वणः) हे केवल वाणियों से स्तवनीय ! हे स्तुतिप्रिय (इन्द्र) ईश्वर (सुन्वतः) शुभकर्म करनेवाले के लिये (ते) तेरा (इयम्) यह प्रत्यक्ष (रातिः) दान (क्षरति) सदा बरसता है तू (मन्दानः) इसके शुभ आचरणों से तृप्त होता हुआ (अस्य) इसके (बर्हिषः) निखिल शुभकर्मों का (वि) विशेषरूप से (राजसि) शासन करता है ॥४॥
भावार्थभाषाः - यह सम्पूर्ण अद्भुत सर्वधनसम्पन्न जगत् ही इसका दान है। विद्वान् इससे महाधनिक होते हैं। हे मनुष्यों ! इसका शासक वही ईश है, उसी की उपासना करो ॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (गिर्वणः) हे वाणीद्वारा सेव्य (इन्द्र) परमात्मन् ! (इयं, ते, रातिः) यह आपके लिये दीयमान आहुति (सुन्वतः) याज्ञिक के (क्षरति) इष्टफल को देती है (अस्य, बर्हिषः) इस याज्ञिक के (मन्दानः) हर्ष को उत्पन्न करते हुए आप (विराजसि) प्रकाशित होते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे सबके इष्टदेव सेवनीय परमात्मन् ! यह आपके निमित्त अर्थात् आपकी प्रजा के लिये दी हुई आहुति याज्ञिक के लिये इष्टफल देनेवाली हो और आप अपनी प्राप्ति द्वारा हम लोगों को हर्ष उत्पन्न करनेवाले हों या यों कहो कि हम लोग आपके समीपवर्ती होकर सुख का अनुभव करते हुए सदा यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहें ॥४॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तदनुवर्त्तते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे गिर्वणः=गीर्भिरेव। वननीय=संभजनीय ! अप्रत्यक्षत्वान्नान्यै रक्षनाद्युपायैः सेवनीयः। यद्वा। गिरां प्रिय। हे इन्द्र ! सुन्वतः=सुन्वते=शोभनकर्माणि कुर्वते जनाय। इयं प्रत्यक्षतयाऽनुभूयमाना। ते=तव। रातिः=दानम्। क्षरति=सर्वदा वर्षति। त्वं खलु मन्दानस्तस्याचरणैस्तृप्यन् सन्। अस्य=यजमानस्य। बर्हिषः=यज्ञस्य। वि=विशेषेण। राजसि=ईशिषे। राजतिरैश्वर्य्यकर्मा ॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (गिर्वणः) हे गीर्भिर्भजनीय (इन्द्र) परमात्मन् ! (इयम्, ते, रातिः) इदं त्वामुद्दिश्य दीयमानाऽऽहुतिः (सुन्वतः) याज्ञिकस्य (क्षरति) इष्टफलानि ददाति (अस्य, बर्हिषः) अस्य ऋत्विजः (मन्दानः) हर्षं जनयन् (विराजसि) तत्र प्रकाशसे ॥४॥