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वर्ध॑स्वा॒ सु पु॑रुष्टुत॒ ऋषि॑ष्टुताभिरू॒तिभि॑: । धु॒क्षस्व॑ पि॒प्युषी॒मिष॒मवा॑ च नः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vardhasvā su puruṣṭuta ṛṣiṣṭutābhir ūtibhiḥ | dhukṣasva pipyuṣīm iṣam avā ca naḥ ||

पद पाठ

वर्ध॑स्व । सु । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । ऋषि॑ऽस्तुताभिः । ऊ॒तिऽभिः॑ । धु॒क्षस्व॑ । पि॒प्युषी॑म् । इष॑म् । अव॑ । च॒ । नः॒ ॥ ८.१३.२५

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:25 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:25


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शिव शंकर शर्मा

इससे इन्द्र की स्तुति करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे बहुस्तुत महेन्द्र ! (ऋषिष्टु१ताभिः) ऋषियों से प्रशंसित और प्रचालित (ऊतिभिः) सहायता के साथ (सु) अच्छे प्रकार (वर्धस्व) हम लोगों को बढ़ाओ (च) और (पिप्युषीम्) सर्वपदार्थसंयुक्त (इषम्) अन्न (नः) हमको (अवधुक्षस्व) दे ॥२५॥
भावार्थभाषाः - ऋषिप्रदर्शित मार्ग से चले, यह उपदेश इससे देते हैं ॥२५॥
टिप्पणी: १−ऋषिस्तुत=अनेकमार्ग जगत् में प्रचलित हैं और अपने-अपने मत या धर्म को सब ही सत्य ही मानते हैं। परन्तु उचित यह है कि स्वयं भी परीक्षा करके सत्यता ग्रहण करे। यदि वैसी शक्ति न हो तो तत्त्ववेत्ताओं से प्रवर्त्तित मार्ग पर चले। उन ही परमविवेकी और तत्त्वदर्शी पुरुषों का नाम ऋषि है। अतः भगवान् उपदेश देते हैं कि ऋषियों के मार्ग पर चलो ॥२५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे बहुतों से स्तुत ! (ऋषिष्टुताभिः, ऊतिभिः) ऋषियों से प्रार्थित रक्षाओं द्वारा (सुवर्धस्व) आप मुझे बढ़ाएँ (पिप्युषीम्, इषम्) तृप्तिकर अन्न को (धुक्षस्व) दीप्तिकर बनाएँ, इस प्रकार (नः) हमारी (अव, च) रक्षा करें ॥२५॥
भावार्थभाषाः - हे सबके स्तुतियोग्य तथा प्रार्थनीय परमेश्वर ! आप अपनी रक्षाओं द्वारा हमें वृद्धि को प्राप्त कराएँ। हमारा खाद्य अन्न हमें पुष्टिकारक तथा दीप्तिकर हो, जिससे हमारी रक्षा हो और हम पुष्ट होकर कान्तिवाले हों ॥२५॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रस्य प्रार्थनां करोति ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे पुरुष्टुत=बहुस्तुत इन्द्र ! त्वम्। ऋषिष्टुताभिः= ऋषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः। स्तुताभिः=प्रचालिताभिश्च। ऊतिभिः= रक्षाभिः=सहायताभिः सह। यद्वा। ऋषिप्रदर्शिताभिः स्तुतिभिः प्रसन्नः सन्। सु=शोभनम्। वर्धस्व=अस्मान् वर्धय=सुखी कुरु। अपि च। नोऽस्मभ्यम्। पिप्युषीम्=प्रवृद्धां सर्वपदार्थसहिताम्। इषम्=अभिलष्यमाणमन्नम्। अव+धुक्षस्व=अवाङ्मुखमस्मदभिमुखं धुक्षस्व=क्षारय देहीत्यर्थः ॥२५॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (पुरुष्टुत) हे बहुभिः स्तुत ! (ऋषिष्टुताभिः, ऊतिभिः) ऋषिभिः प्रार्थिताभिः रक्षाभिः (सुवर्धस्व) सुष्ठु वर्धयस्व (पिप्युषीम्, इषम्) तर्पयित्रन्नम् (धुक्षस्व) वर्धयस्व (नः) अस्मानेवम् (अव, च) रक्ष च ॥२५॥