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त्रिक॑द्रुकेषु॒ चेत॑नं दे॒वासो॑ य॒ज्ञम॑त्नत । तमिद्व॑र्धन्तु नो॒ गिर॑: स॒दावृ॑धम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

trikadrukeṣu cetanaṁ devāso yajñam atnata | tam id vardhantu no giraḥ sadāvṛdham ||

पद पाठ

त्रिऽक॑द्रुकेषु । चेत॑नम् । दे॒वासः॑ । य॒ज्ञम् । अ॒त्न॒त॒ । तम् । इत् । व॒र्ध॒न्तु॒ । नः॒ । गिरः॑ । स॒दाऽवृ॑धम् ॥ ८.१३.१८

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:18 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:10» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:18


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शिव शंकर शर्मा

इससे उसकी महिमा दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (देवासः) दिव्यगुणयुक्त विद्वद्गण (त्रिकद्रुकेषु) तीनों लोकों में (चेतनम्) चेतन और सर्व में चेतनता देनेवाले और (यज्ञम्) पूजनीय उसी ईश्वर को (अत्नत) यशोगान से और पूजा से विस्तारित करते हैं अर्थात् अन्यान्य पूजा छुड़ाकर परमात्मा की ही पूजा का विस्तार करते हैं (तम्+इत्) उसी (सदावृधम्) सर्वदा जगत् में सुख बढ़ानेवाले इन्द्र के लिये ही (नः) हमारी (गिरः) वाणी (वर्धन्तु) बढ़ें। यद्वा उसी इन्द्र के परम यश को हमारी वाणी बढ़ावें ॥१८॥
भावार्थभाषाः - परम विद्वान्जन भी जिस को सर्वदा गाते स्तुति और प्रार्थना करते हैं, उसी को हम भी सर्वभाव से पूजें ॥१८॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञम्) जिस पूजनीय (त्रिकद्रुकेषु, चेतनम्) उत्पत्ति-स्थिति-संहार तीनों अवस्थाओं में चेतन परमात्मा को (देवाः, अत्नत) सब विद्वान् बढ़ाते हैं (तम्, सदावृधम्, इत्) उसी सदा वृद्धिप्राप्त परमात्मा को (नः, गिरः) हमारी वाणियें बढ़ाएँ ॥१८॥
भावार्थभाषाः - वह परमात्मा, जो इस संसार की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करनेवाला है, उसकी महिमा को विद्वान् पुरुष सब अवस्थाओं में बढ़ाते हैं, अतएव हम सब प्रजाजनों को उचित है कि सदा वृद्धि को प्राप्त उस परमात्मा के महत्त्व को वाणियों द्वारा विस्तृत करें ॥१८॥
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शिव शंकर शर्मा

महिमानं दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - देवासः=विद्वांसो जनाः। त्रिकद्रुकेषु=त्रिषु लोकेषु। कुत्सितं रुवन्ति जीवा यत्र स कद्रुकः। त्रयः कद्रुका इति त्रिकद्रुकास्तेषु। चेतनम्=चेतयितारम्। यज्ञम्=यष्टव्यमीश्वरम्। अत्नत=अतन्वत यशोगानेन पूजया वा विस्तारयन्ति। तमित्तमेव। सदावृधम्=सर्वदा सुखस्य वर्धयितारम्। इन्द्रम् उद्दिश्य नोऽस्माकम्। गिरो वर्धन्तु=वर्धन्ताम् ॥१८॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यज्ञम्) यष्टव्यम् (त्रिकद्रुकेषु) उत्पत्तिस्थितिप्रलयेषु (चेतनम्) जागरूकम् यम् (देवासः) सर्वे विद्वांसः (अत्नत) वर्धयन्ति (तम्, सदावृधम्, इत्) शश्वद्वृद्धिप्राप्तं तमेव (नः, गिरः) अस्माकं वाचः (वर्धन्तु) वर्धयन्तु ॥१८॥