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स्तु॒हि श्रु॒तं वि॑प॒श्चितं॒ हरी॒ यस्य॑ प्रस॒क्षिणा॑ । गन्ता॑रा दा॒शुषो॑ गृ॒हं न॑म॒स्विन॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

stuhi śrutaṁ vipaścitaṁ harī yasya prasakṣiṇā | gantārā dāśuṣo gṛhaṁ namasvinaḥ ||

पद पाठ

स्तु॒हि । श्रु॒तम् । वि॒पः॒ऽचित॑म् । हरी॒ इति॑ । यस्य॑ । प्र॒ऽस॒क्षिणा॑ । गन्ता॑रा । दा॒शुषः॑ । गृ॒हम् । न॒म॒स्विनः॑ ॥ ८.१३.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:10 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:8» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:10


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शिव शंकर शर्मा

वही स्तुत्य है, यह दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! आप (श्रुतम्) सर्वश्रुत और (विपश्चितम्) सर्वद्रष्टा चेतयिता विज्ञानी परमात्मा की (स्तुहि) स्तुति कीजिये। (यस्य) जिसकी (प्रसक्षिणा) प्रसहनशील (हरी) स्थावर और जङ्गमात्मक सम्पत्तियाँ (नमस्विनः) पूजावान् और (दाशुषः) दरिद्रों को देनेहारे के (गृहम्) गृह में (गन्तारौ) जाते हैं अर्थात् उस भक्त के गृह में ईश्वरसम्बन्धी द्विविध स्थावर और जङ्गम सम्पत्तियाँ पूर्ण रहती हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - ईश्वरोपासकों को कदापि भी धन की क्षीणता नहीं होती, यह जानकर उसी की पूजा करो ॥१०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे उपासक ! (श्रुतम्) प्रसिद्ध (विपश्चितम्) उस विद्वान् परमात्मा की (स्तुहि) स्तुति करो (यस्य, हरी) जिसकी उत्पादन-रक्षणरूप शक्तियें (प्रसक्षिणा) शत्रु को नम्र करनेवाली और (नमस्विनः) नम्र (दाशुषः) उपासक के (गृहे) अन्तःकरणरूप गृह में (गन्तारा) जानेवाली हैं ॥१०॥
भावार्थभाषाः - हे उपासक जनो ! तुम उस परमात्मा की उपासना में निरन्तर प्रवृत्त रहो, जिसकी उत्पादन तथा रक्षणरूप शक्तियें शत्रुओं को वशीभूत करनेवाली और उपासक के अन्तःकरण में प्रविष्ट होकर उसको बलवान् तथा पवित्र भावोंवाला बनानेवाली हैं ॥१०॥
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शिव शंकर शर्मा

स एव स्तुत्योऽस्तीति दर्शयति।

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वन् ! श्रुतम्=सर्वैर्विद्वद्भिश्च विश्रुतं सुप्रसिद्धम्। विपश्चितम्=विशेषेण द्रष्टारं चेतयितारञ्चेन्द्रम्। स्तुहि=प्रशंस। यस्येन्द्रस्य। प्रसक्षिणा=प्रसहनशीलौ। हरी=स्थावरजङ्गमात्मकौ हरणशीलौ पदार्थौ। नमस्विनः=पूजावतः। दाशुषः=दातुर्गृहम्। गन्तारा=गन्तारौ भवतः। तस्य भक्तस्य गृहं द्विविधया सम्पत्त्या पूर्णं भवतीत्यर्थः ॥१०॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - हे उपासक ! (श्रुतम्) प्रसिद्धम् (विपश्चितम्) विद्वांसम् (स्तुहि) स्तुत्या सेवस्व (यस्य) यस्य परमात्मनः (हरी) उत्पादनरक्षणशक्ती (प्रसक्षिणा) शत्रूणामभिभवित्यौ (नमस्विनः) नम्रस्य (दाशुषः) उपासकस्य (गृहे) अन्तःकरणे (गन्तारा) गमनशीले ॥१०॥