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इन्द्र॑: सु॒तेषु॒ सोमे॑षु॒ क्रतुं॑ पुनीत उ॒क्थ्य॑म् । वि॒दे वृ॒धस्य॒ दक्ष॑सो म॒हान्हि षः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indraḥ suteṣu someṣu kratum punīta ukthyam | vide vṛdhasya dakṣaso mahān hi ṣaḥ ||

पद पाठ

इन्द्रः॑ । सु॒तेषु॑ । सोमे॑षु । क्रतु॑म् । पु॒नी॒ते॒ । उ॒क्थ्य॑म् । वि॒दे । वृ॒धस्य॑ । दक्ष॑सः । म॒हान् । हि । सः ॥ ८.१३.१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:13» मन्त्र:1 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:7» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:3» मन्त्र:1


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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रवाच्य ईश्वर की प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) इस सम्पूर्ण जगत् का द्रष्टा ईश्वर हम मनुष्यों की (वृधस्य) वृद्धि और (दक्षसः) बल की (विदे) प्राप्ति के लिये (सुतेषु) क्रियमाण (सोमेषु) विविध शुभकर्मों में (क्रतुम्) हमारी क्रिया और (उक्थ्यम्) भाषणशक्ति को (पुनीते) पवित्र करे (हि) क्योंकि (सः) वह इन्द्र (महान्) सबसे महान् है, इस कारण वह सब कर सकता है ॥१॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर सब कर्मों में वैसी सुमति हमको देवे, जिससे हमारे सर्व व्यापार अभ्युदय के लिये पवित्रतम होवें ॥१॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा से वेदचतुष्टय का प्रकट होना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परमात्मा (सुतेषु, सोमेषु) इस ब्रह्माण्ड के कार्याकार होने पर (वृधस्य, दक्षसः) ऐश्वर्यवर्धक शक्ति के (विदे) ज्ञान के लिये (उक्थ्यम्, क्रतुम्) कर्मप्रधान पदार्थों के बोधक वेदचतुष्टय को (पुनीते) पुनः प्रकट करता है (हि) इसी से (सः) वह (महान्) सर्वाधिक है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि परमात्मा सृष्टि के आदि में अर्थात् इस ब्रह्माण्ड के कार्य्याकार होने पर सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार तथा ऐश्वर्य्यप्राप्ति के साधन चारों वेदों को पुनः प्रकट करता है, जिससे मनुष्यों को सम्पूर्ण कर्मों का ज्ञान होता है, जैसा कि अन्यत्र भी वर्णन किया है किः−ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ ऋग्० ८।८।४८।१।उसी परमात्मा से ऋत=वेद, कार्य्यरूप प्रकृति, रात्रि, मेघमण्डल तथा समुद्रादि सम्पूर्ण पदार्थ उत्पन्न हुए और इसीलिये परमात्मा सबसे महान्=सर्वोपरि है, क्योंकि वह वेदों द्वारा मनुष्यों को ज्ञान की वृद्धि करनेवाला है, जिससे पुरुष ऐश्वर्य्यसम्पन्न होकर संसार में महान् होता है। अतएव मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि परमात्मवाणीरूप वेद का नित्य स्वाध्याय करते हुए पवित्र भावोंवाले बनें, जिससे मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय को प्राप्त करने के अधिकारी हों ॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्रवाच्येश्वरं प्रार्थयति।

पदार्थान्वयभाषाः - इन्द्रः=अस्य जगतो द्रष्टा महेश्वरः। सुतेषु=क्रियमाणेषु। सोमेषु=सोमादियज्ञेषु। क्रतुम्=क्रियां व्यापारम्। अपि च। उक्थ्यम्=उक्थमुक्तिर्वचनं भाषणशक्तिञ्च। पुनीते=पुनीताम्। कस्मै प्रयोजनाय। वृधस्य=वृद्धेः। दक्षसः=बलस्य च। विदे=लाभाय। हि=यतः। स इन्द्रो महान् अस्ति, अतः स खलु सर्वं कर्तुं शक्नोति ॥१॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मसकाशात् वेदप्रादुर्भूतिरुच्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परमात्मा (सुतेषु, सोमेषु) सिद्धेषु ब्रह्माण्डगतकार्येषु (वृधस्य, दक्षसः) वर्धकस्य बलस्य (विदे) ज्ञानाय (उक्थ्यम्, क्रतुम्) कर्मप्रधानं पदार्थबोधकं वेदम् (पुनीते) संस्करोति (हि) अतः (सः) स परमात्मा (महान्) सर्वाधिकः ॥१॥