अब परमात्मा से वेदचतुष्टय का प्रकट होना कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) परमात्मा (सुतेषु, सोमेषु) इस ब्रह्माण्ड के कार्याकार होने पर (वृधस्य, दक्षसः) ऐश्वर्यवर्धक शक्ति के (विदे) ज्ञान के लिये (उक्थ्यम्, क्रतुम्) कर्मप्रधान पदार्थों के बोधक वेदचतुष्टय को (पुनीते) पुनः प्रकट करता है (हि) इसी से (सः) वह (महान्) सर्वाधिक है ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि परमात्मा सृष्टि के आदि में अर्थात् इस ब्रह्माण्ड के कार्य्याकार होने पर सम्पूर्ण ज्ञान के भण्डार तथा ऐश्वर्य्यप्राप्ति के साधन चारों वेदों को पुनः प्रकट करता है, जिससे मनुष्यों को सम्पूर्ण कर्मों का ज्ञान होता है, जैसा कि अन्यत्र भी वर्णन किया है किः−ऋतञ्च सत्यञ्चाभीद्धात्तपसोऽध्यजायत।ततो रात्र्यजायत ततः समुद्रो अर्णवः ॥ ऋग्० ८।८।४८।१।उसी परमात्मा से ऋत=वेद, कार्य्यरूप प्रकृति, रात्रि, मेघमण्डल तथा समुद्रादि सम्पूर्ण पदार्थ उत्पन्न हुए और इसीलिये परमात्मा सबसे महान्=सर्वोपरि है, क्योंकि वह वेदों द्वारा मनुष्यों को ज्ञान की वृद्धि करनेवाला है, जिससे पुरुष ऐश्वर्य्यसम्पन्न होकर संसार में महान् होता है। अतएव मनुष्यमात्र का कर्तव्य है कि परमात्मवाणीरूप वेद का नित्य स्वाध्याय करते हुए पवित्र भावोंवाले बनें, जिससे मनुष्यजन्म के फलचतुष्टय को प्राप्त करने के अधिकारी हों ॥