व॒व॒क्षुर॑स्य के॒तवो॑ उ॒त वज्रो॒ गभ॑स्त्योः । यत्सूर्यो॒ न रोद॑सी॒ अव॑र्धयत् ॥
अंग्रेज़ी लिप्यंतरण
vavakṣur asya ketavo uta vajro gabhastyoḥ | yat sūryo na rodasī avardhayat ||
पद पाठ
व॒व॒क्षुः । अ॒स्य॒ । के॒तवः॑ । उ॒त । वज्रः॑ । गभ॑स्त्योः । यत् । सूर्यः॑ । न । रोद॑सी॒ इति॑ । अव॑र्धयत् ॥ ८.१२.७
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:7
| अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:2» मन्त्र:2
| मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:7
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शिव शंकर शर्मा
उसकी महिमा दिखाई जाती है।
पदार्थान्वयभाषाः - इस ऋचा से परमात्मा की कृपा दिखलाई जाती है। यथा−(अस्य) सर्वत्र विद्यमान इस परमदेव के (केतवः) संसारसम्बन्धी विज्ञान अर्थात् नियम ही (ववक्षुः) प्रतिक्षण प्राणिमात्र को सुख पहुँचा रहे हैं। (उत) और (गभस्त्योः) हाथों में स्थापित (वज्रः) दण्ड भी सर्व प्राणियों को सुख पहुँचा रहा है अर्थात् ईश्वरीय नियम और दण्ड ये दोनों जीवों को सुख पहुँचा रहे हैं। कब सुख पहुँचाते हैं, इस आशङ्का पर कहा जाता है (यद्) जब (सूर्यः+न) सूर्य के समान (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक को अर्थात् सम्पूर्ण विश्व को (अवर्धयन्) पालन करने में प्रवृत्त होता है। हे परमात्मदेव ! यह आपकी महती कृपा है ॥७॥
भावार्थभाषाः - उस देव के नियम और दण्ड से ही यह जगत् चल रहा है। इसका कर्त्ता भी वही है। जैसे प्रत्यक्षरूप से सूर्य इसको सब प्रकार सुख पहुँचाता है, तद्वत् ईश्वर भी। परन्तु वह अदृश्य है, अतः हमको उसकी क्रिया प्रतीत नहीं होती है ॥७॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) इस परमात्मा के (केतवः) ज्ञान (ववक्षुः) लोक को धारण कर रहे हैं (उत) और (गभस्त्योः) पालन तथा संहाररूप दोनों बाहु में (वज्रः) दण्डरूपशस्त्र धारण कर रहा है (यत्) क्योंकि उन्हीं ज्ञानों से (सूर्यः, न) सूर्य के सदृश (रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक को (अवर्धयत्) अभिव्यक्त करता है ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में ज्ञान को संसार का पालक इसलिये कहा है कि बिना ज्ञान के जड़ प्रकृति किसी कार्य्य की प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति में समर्थ नहीं हो सकती। जिस प्रकार सूर्य्य अपने प्रकाश से जगत् के सकल घटापटादि पदार्थों को व्यक्त करता है, इसी प्रकार जीव भी प्रकृति के आश्रित होकर ज्ञानशक्ति ही से सम्पूर्ण पदार्थों को विषय करता है और इस परमात्मा की पालन तथा संहाररूप दोनों शक्ति ही गभन्ति=बाहुस्थानीय मानी है, जिनसे सत्पुरुषों का पालन तथा असत्पुरुषों का संहाररूप दण्ड से संसार की स्थिति होती है ॥७॥
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शिव शंकर शर्मा
तस्य महिमा प्रदर्श्यते।
पदार्थान्वयभाषाः - परमात्मकृपाऽत्र प्रदर्श्यते। यथा−अस्य=सर्वत्र विद्यमानस्य= प्रत्यक्षवद्भासमानस्य इन्द्रस्य। केतवः=सृष्ट्युत्पादजन्यविज्ञानानि एव। ववक्षुः=प्रतिक्षणं जीवान् सुखानि वहन्ति। उत=अपि च। गभस्त्योः=“गभस्तिरिति बाहुनाम” हस्तयोर्मध्ये निहितः। वज्रः=दण्डः। ईश्वरीयनियम इति यावद् जीवान् सुखानि वहति। पुनः। यद्=यदा। सूर्यो न=सूर्य इव। य इन्द्रः। रोदसी=द्यावापृथिव्यौ। अवर्धयन्=वर्धयति पालयति। यदा सूर्य इव जगत्पालने प्रवृत्तो भवति भगवान् तदा तस्य नियमा ईदृशा जायन्ते वै सर्वे सुखिनो भवन्ति ॥७॥
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आर्यमुनि
पदार्थान्वयभाषाः - (अस्य) अस्य इन्द्रस्य (केतवः) ज्ञानानि (ववक्षुः) लोकं वहन्ति (उत) अथ (गभस्त्योः) पालनसंहरणरूपशक्त्योः (वज्रः) दण्डरूपशस्त्रं च वहति (यत्) यतस्तैर्ज्ञानैः (सूर्यः, न) सूर्य इव (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (अवर्धयत्) व्यानक् ॥७॥