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इ॒मां त॑ इन्द्र सुष्टु॒तिं विप्र॑ इयर्ति धी॒तिभि॑: । जा॒मिं प॒देव॒ पिप्र॑तीं॒ प्राध्व॒रे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

imāṁ ta indra suṣṭutiṁ vipra iyarti dhītibhiḥ | jāmim padeva pipratīm prādhvare ||

पद पाठ

इ॒माम् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । विप्रः॑ । इ॒य॒र्ति॒ । धी॒तिऽभिः॑ । जा॒मिम् । प॒दाऽइ॑व । पिप्र॑तीम् । प्र । अ॒ध्व॒रे ॥ ८.१२.३१

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:31 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:6» मन्त्र:6 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:31


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शिव शंकर शर्मा

महिमा की स्तुति करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे इन्द्र परमैश्वर्य्यदेव ! (विप्रः) मेधावीजन (अध्वरे) यज्ञ में (ते) तेरे ही लिये (पिप्रतीम्) प्रसन्न करनेवाली (इमाम्) इस (सुस्तुतिम्) शोभन स्तुति को (धीतिभिः) विज्ञान के तदर्थ (प्र+इयर्त्ति) अतिशय प्रेरित करते हैं। अन्य देव के लिये नहीं। यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(जामिम्) अपने बन्धु को (पदा+इव) जैसे उत्तम पद की ओर ले जाते हैं, तद्वत् मेधावीगण अपनी प्रिय स्तुति को तेरी ओर ले जाते हैं ॥३१॥
भावार्थभाषाः - जैसे विद्वान् उसकी स्तुति करते हैं, तद्वत् इतरजन भी करें ॥३१॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (विप्रः) मेधावी जन (धीतिभिः) यज्ञकर्मों द्वारा (इमाम्, ते, सुष्टुतिम्) इस आपकी स्तुति को (प्राध्वरे) यज्ञसदन में (इयर्ति) आपके समीप पहुँचाता है, जिस प्रकार (पिप्रतिम्) पालन करनेवाले (जामिम्) बन्धुजन को (पदा इव) उसका बन्धु उच्चस्थान पर पहुँचाता है ॥३१॥
भावार्थभाषाः - हे हमारे पालक परमात्मन् ! याज्ञिक लोग यज्ञस्थानों में स्तुतियों द्वारा आपको बढ़ाते अर्थात् प्रजाजनों में आपको सर्वोपरि सिद्ध करते हैं, जैसे लोक में सहायक बन्धुजन अपने बन्धु को उच्च अवस्था पर पहुँचाते हैं ॥३१॥
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शिव शंकर शर्मा

महिमा स्तूयते।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! विप्रः=मेधावीजनः। अध्वरे=यज्ञे। ते=तवैव। इमां पिप्रतीम्=पूजयन्तीम्। सुस्तुतिम्=शोभनां स्तुतिम्। धीतिभिः= विज्ञानैः सह। प्र इयर्ति=प्रकर्षेण प्रेरयति करोतीत्यर्थः। अत्र दृष्टान्तः−जामिं पदा+इव। यथा जामिम्=स्वबन्धुम्। पदा=पदानि उत्तमानि पदानि गमयति तद्वत् ॥३१॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (विप्रः) मेधाविजनः (धीतिभिः) यज्ञकर्मभिः (इमाम्, ते, सुष्टुतिम्) इमां तव सुस्तुतिम् (प्राध्वरे) यज्ञे (इयर्ति) त्वां गमयति (पिप्रतीम्) पालयित्रीम् (जामिम्) बन्धुजातिम् (पदा इव) उच्चपदानीव ॥३१॥