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येन॒ सिन्धुं॑ म॒हीर॒पो रथाँ॑ इव प्रचो॒दय॑: । पन्था॑मृ॒तस्य॒ यात॑वे॒ तमी॑महे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yena sindhum mahīr apo rathām̐ iva pracodayaḥ | panthām ṛtasya yātave tam īmahe ||

पद पाठ

येन॑ । सिन्धु॑म् । म॒हीः । अ॒पः । रथा॑न्ऽइव । प्र॒ऽचो॒दयः॑ । पन्था॑म् । ऋ॒तस्य॑ । यात॑वे । तम् । ई॒म॒हे॒ ॥ ८.१२.३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:3 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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शिव शंकर शर्मा

पुनः उसी अर्थ को कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हम उपासकगण (तम्+ईमहे) उस पूर्वोक्त मद=ईश्वरीय आनन्द की प्रार्थना करते हैं। किसलिये (ऋतस्य) सत्य के (पन्थाम्) मार्ग की ओर (यातवे) जाने के लिये (येन) और हे इन्द्र जिस मद से तू (वहीः) बहुत (अपः) जल (सिन्धुम्) सिन्धु=नदी में या समुद्र में (प्रचोदयः) भेजता है। यहाँ दृष्टान्त देते हैं−(रथान्+इव) जैसे सारथि रथों को अभिमत प्रदेश की ओर ले जाता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - यह परमात्मा का महान् नियम है कि पृथिवीस्थ जल समुद्र में और समुद्र का पृथिवी में एवं पृथिवी और समुद्र से उठकर जल मेघ बनता और वहाँ से पुनः समुद्रादि में गिरता है। इत्यादि अनेक नियम के अध्ययन से मनुष्य सत्यता की ओर जा सकता है। हे भगवन् ! सत्यता की ओर हमको ले चलो ॥३॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा से सत्यमार्ग प्राप्त करने के लिये याचना करना कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (येन) जिस पराक्रम से (मही, अपः) महान् जलों को (रथान् इव) रथों के समान (सिन्धुम्) समुद्र के प्रति (प्रचोदयः) पहुँचाते हैं, (तम्) उस पराक्रम को (ऋतस्य, पन्थाम्) सत्य के मार्ग को (यातवे) प्राप्त करने के लिये (ईमहे) याचना करते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - हे परमात्मन् ! आप अपने जिस पराक्रम से महान् जलों को शीघ्रगामी रथों के समान शीघ्रता से समुद्र को प्राप्त कराते हैं, वह पराक्रम, तेज और बल हमें भी दीजिये और हे परमपिता परमात्मन् ! आप हम लोगों को सत्य पर ले जाएँ, ताकि हम लोग मन, कर्म और वचन से सत्यव्यवहार में प्रवृत्त हों, हम कभी भी असत्य का आश्रय न लें, यह हम आपसे याचना करते हैं। हे प्रभो ! हमारा मनोरथ सफल करें ॥३॥
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शिव शंकर शर्मा

पुनस्तमर्थमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - पुनस्तमीश्वरीयमानन्दमीमहे=प्रार्थयामहे। किं कर्त्तुम्। ऋतस्य=सत्यस्य। पन्थाम्=पन्थानम्=मार्गम्। यातवे=यातुम्= गन्तुम्। येन मदेन। महीः=महत्यः। अपो=जलानि। सिन्धुम्=स्यन्दनशीलां प्रवहणवतीं सिन्धुं नदीम्। अथवा स्यन्दनशीलं समुद्रं वा। त्वम्। प्रचोदयः=प्रेरयसि। अत्र दृष्टान्तः−रथानिव=यथा सारथी रथान् स्वाभीष्टदेशगमनाय प्रेरयति तद्वत् ॥३॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मा सत्यमार्गं लब्धुं प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (येन) येन पराक्रमेण (महीः, अपः) महान्ति जलानि (रथान्, इव) इच्छागामिरथानिव (सिन्धुम्) समुद्रं प्रति (प्रचोदयः) गमयसि (तम्) तं पराक्रमम् (ऋतस्य, पन्थां) सत्यस्य पन्थानम् (यातवे) यातुम् (ईमहे) प्रार्थयामहे ॥३॥