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यं विप्रा॑ उ॒क्थवा॑हसोऽभिप्रम॒न्दुरा॒यव॑: । घृ॒तं न पि॑प्य आ॒सन्यृ॒तस्य॒ यत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yaṁ viprā ukthavāhaso bhipramandur āyavaḥ | ghṛtaṁ na pipya āsany ṛtasya yat ||

पद पाठ

यम् । विप्राः॑ । उ॒क्थऽवा॑हसः । अ॒भि॒ऽप्र॒म॒न्दुः । आ॒यवः॑ । घृ॒तम् । न । पि॒प्ये॒ । आ॒सनि॑ । ऋ॒तस्य॑ । यत् ॥ ८.१२.१३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:12» मन्त्र:13 | अष्टक:6» अध्याय:1» वर्ग:3» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:13


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शिव शंकर शर्मा

उसकी महिमा गाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - विविध प्रकारों से परमात्मा की उपासना विद्वद्गण करते हैं। अन्य पुरुषों को भी उनका अनुकरण करना उचित है, यह शिक्षा इस ऋचा से देते हैं। यथा−(विप्राः) मेधावी विद्वान् (उक्थवाहसः) विविध स्तुति प्रार्थना करनेवाले (आयवाः) मनुष्य (यम्) जिस इन्द्र नामधारी परमात्मा की (अभि) सर्वभाव से (प्रमन्दुः) अपने व्यापार से और शुभकर्मों के द्वारा प्रसन्न करते हैं, उसी (ऋतस्य) सत्यस्वरूप इन्द्र के (आसनि) मुखसमान अग्निकुण्ड में मैं उपासक (न) इस समय (यत्) जो पवित्र (घृतम्) शाकल्य है, उसको (पिप्ये) होमता हूँ अर्थात् उसको कोई स्तुतियों से और कोई आहुतियों से प्रसन्न करता है ॥१३॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर की दैनिक स्तुति और प्रार्थनारूप यज्ञ सबसे बढ़कर है ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यं) जिस परमात्मा को (उक्थवाहसः) श्रोत्रिय (विप्राः, आयवः) मेधावी जन (अभिप्रमन्दुः) सर्वत्र सन्तुष्ट करते हैं (यत्) क्योंकि (ऋतस्य, आसन्) यज्ञमुख अग्नि में (घृतम्, न) जिस प्रकार घृतसिञ्चन कर अग्नि को प्रवृद्ध करते हैं, इसी प्रकार उसको स्तुतियों से प्रकाशित करते हैं ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जिस प्रकार याज्ञिक लोग घृतद्वारा अग्नि को प्रज्वलित करते=बढ़ाते हैं, इसी प्रकार मेधावी पुरुष स्तुतियों द्वारा परमात्मा के महत्त्व को सर्वत्र प्रजाजनों में विस्तृत करते हैं, ताकि प्रजाजन उसकी महिमा को भले प्रकार जानकर उसी की उपासना में प्रवृत्त रहें ॥१३॥
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शिव शंकर शर्मा

तस्य महिमानं गायति।

पदार्थान्वयभाषाः - विप्राः=मेधाविनः। उक्थवाहसः=उक्थवाहाः=उक्थानां स्तोत्राणां वोढारः। आयवाः=मनुष्याः। यम्=इन्द्रम्। अभिप्रमन्दुः=अभि= सर्वभावेन प्रमन्दयन्ति=स्वव्यापारेण शुभकर्मणा च प्रसादयन्ति। तस्यैव। ऋतस्य=सत्यस्येन्द्रस्य। आसनि=आस्ये मुखे मुखसमाने अग्निकुण्डे यत् पवित्रं घृतमस्ति। न सम्प्रत्यर्थः। न=सम्प्रति। तद् घृतम्। पिप्ये=वर्द्धये जुहोमीत्यर्थः ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यं) यं परमात्मानम् (उक्थवाहसः) स्तोत्रिणः (विप्राः, आयवः) विद्वज्जनाः (अभिप्रमन्दुः) सर्वतः प्रसादयन्ति (यत्) यतः (ऋतस्य, आसन्) यज्ञस्य मुखेऽग्नौ (घृतं, न) घृतं मुक्त्वेव (पिप्ये) प्याययन्ति ॥१३॥