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वस्याँ॑ इन्द्रासि मे पि॒तुरु॒त भ्रातु॒रभु॑ञ्जतः । मा॒ता च॑ मे छदयथः स॒मा व॑सो वसुत्व॒नाय॒ राध॑से ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vasyām̐ indrāsi me pitur uta bhrātur abhuñjataḥ | mātā ca me chadayathaḥ samā vaso vasutvanāya rādhase ||

पद पाठ

वस्या॑न् । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । मे॒ । पि॒तुः॒ । उ॒त । भ्रातुः॑ । अभु॑ञ्जतः । मा॒ता । च॒ । मे॒ । छ॒द॒य॒थः॒ । स॒मा । व॒सो॒ इति॑ । व॒सु॒ऽत्व॒नाय॑ । राध॑से ॥ ८.१.६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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शिव शंकर शर्मा

महाधनिक भी इन्द्र को ही समझकर उसकी उपासना करे, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (वसो+इन्द्र) हे धनस्वरूप ! हे सर्ववासप्रद ! हे सर्वत्र निवासिन् परमात्मन् ! तू (मे पितुः) मेरे पिता से भी अधिक (वस्यान्) प्रिय और धनिक (असि) है (उत) और (अभुञ्जतः*) अभोगी (भ्रातुः) भाई से भी अधिक धनिक है (च) और (मे) मेरी (माता) माता और तू दोनों (समा) तुल्य होकर अर्थात् समानरूप से (वसुत्वनाय) जगत् में वास और धन की प्राप्ति के लिये और (राधसे) आदर के लिये (छदयथः) मुझको पूजित करते हैं। यद्वा नाना दुराचारों से बचाते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - सत्यासत्यविवेकवती माता के और परमेश्वर के अनुग्रह के विना जगत् में कोई प्रतिष्ठित नहीं होता ॥६॥
टिप्पणी: * अभुञ्जतः−अपने धनों से जो असहाय दीन-हीन जनों की रक्षा नहीं करता, वह अभुञ्जन् (अभोगी) कहलाता। अथवा जो न स्वयं भोगे और न पात्रों को देवे वह अभुञ्जन्। यह शब्द एक स्थल में और आया है। यथा−अध स्वप्नस्य निर्विदेऽभुञ्जतश्च रेवतः। उभा ता वस्रि नश्यतः ॥ ऋ० १।१२०।१२ ॥ मैं (स्वप्नस्य) स्वप्नशील आलसी पुरुष से (निर्विदे) घृणा करता हूँ। और (रेवतः+अभुञ्जतः) जो धनवान् होकर दूसरे का प्रतिपालन नहीं करता, उससे भी घृणा करता हूँ (उभा+ता) वे दोनों (वस्रि) शीघ्र (नश्यतः) नष्ट हो जाते हैं ॥६॥
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आर्यमुनि

अब पिता आदिकों से भी परमात्मा को उत्कृष्ट कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (अभुञ्जतः) अपालक (पितुः) पिता (उत) और (भ्रातुः) भ्राता से (वस्यान्, असि) आप अधिक पालक हैं, (वसो) हे व्यापक परमात्मन् ! आप (च) और (मे) मेरी (माता) माता दोनों ही (वसुत्वनाय) मेरी व्याप्ति के लिये तथा (राधसे) ऐश्वर्य्य के लिये (समा) समान (छदयथः) पूजित बनाते हैं ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि जिस प्रकार माता हार्दिक प्रेम से पुत्र का लालन-पालन करके सदा उसकी भलाई चाहती है, इसी प्रकार ईश्वर भी मातृवत् सब जीवों की हितकामना करता है। मन्त्र में पिता तथा भ्राता सब सम्बन्धियों का उपलक्षण है अर्थात् ईश्वर सब सम्बन्धियों से बड़ा है और माता के समान कथन करने से इस बात को दर्शाया है कि अन्य सम्बन्धियों की अपेक्षा माता अधिक स्नेह करती है और माता के समान ही परमात्मा सब मनुष्यों का शुभचिन्तक है ॥६॥
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शिव शंकर शर्मा

महाधनशालित्वेनापि स चेन्द्र एवोपास्य इत्यर्थं विशदयत्यनया।

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! त्वम्। मे=मम पितुः=पालकाज्जनकादपि वस्यान्=वसीयान् वसुमत्तरो धनवत्तमोऽसि। उत=अपिच अभुञ्जतः=अनश्नतो भ्रातुरपि वस्यानसि। हे वसो=सर्वत्र निवासिन् ! हे वासप्रद ! हे धनस्वरूप ! मे=मम। माता=त्वञ्च। समा=समौ तुल्यौ सन्तौ। मां छदयथः=पूजितं कुरुथः मनुष्येषु प्रतिष्ठितं कुरुथ इत्यर्थः। छदयतिरर्चतिकर्मा। किमर्थम्। वसुत्वनाय=धनाय। राधसे=सत्काराय च ॥६॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मनः पित्रादिभ्यो ज्यैष्ठ्यं निरूप्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्र) हे ऐश्वर्य्यशालिन् परमात्मन् ! (मे, पितुः) मम पितुः (वस्यान्, असि) अधिकः पालकोऽसि (अभुञ्जतः) अपालयतः (भ्रातुः, उत) भ्रातुरपि अधिको वसीयानसि (वसो) हे व्यापक ! (वसुत्वनाय) व्यापनाय (राधसे) ऐश्वर्याय च त्वं (माता, च, मे) मम माता च (समा) तुल्यौ द्वौ (छदयथः) मां मानार्हं कुरुथः ॥६॥