यह जगत् ही उसको दिखलाता है, यह शिक्षा इससे देते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - वैदिक और लौकिक शब्द यद्यपि बहुधा समान हैं, तथापि बहुत से शब्दों के अर्थ में महान् अन्तर प्रतीत होता है। इस ऋचा के हिरण्यादि शब्दों पर ध्यान दीजिये (हिरण्यये) परस्पर आकर्षण करनेवाले परमाणुओं का नाम हिरण्य है। उन परमाणुओं से युक्त जो वस्तु वह हिरण्यय। (रथ) रमणीय समष्टिरूप जगत् ही यहाँ रथ है (ब्रह्मयुजः) चित्शक्ति अर्थात् चेतनशक्ति का नाम यहाँ ब्रह्म है। एक परमाणु भी उस चित्शक्ति से रहित नहीं है। (हरयः) पृथिवीलोक, सूर्यलोक, नक्षत्रलोक आदि जो भिन्न-२ जगत् हैं, वे यहाँ हरि कहे गए हैं, क्योंकि वे परस्पर गुण दोषों को अपने-२ में लेते हैं। (केशिनः) पर्वत, द्रुम, नदी प्रभृति ही यहाँ केश हैं। उन से युक्त जो हैं, वे केशी (सोमपीतये) सोमपान शब्द का अर्थ केवल यज्ञानुग्रह है, मनुष्यों के कर्मों पर अनुग्रह करना। अब सम्पूर्ण ऋचा का अर्थ इस प्रकार है−(इन्द्र) हे इन्द्र ! (हिरण्यये) परस्पर आकर्षणयुक्त (रथे) परमरमणीय इस समष्टिरूप रथ में (युक्ताः) लगे हुए (हरयः) जो परस्पर हरणशील व्यष्टिभूत पृथिवी सूर्य्य आदि लोक हैं, वे (त्वा) तुझको (सोमपीतये) मनुष्यों के शुभ कर्मों पर अनुग्रह करने के लिये (आवहन्तु) प्रकाशित करें, तुझको दिखलावें। वे हरि कितने हैं, इस पर कहते हैं− (सहस्रम्+आ+शतम्) सहस्र और शत, ये दोनों शब्द बहुवाची हैं अर्थात् वे हरि बहुत-बहुत हैं। उनकी गणना नहीं हो सकती। केवल शत, सहस्र आदि शब्दों से वे पुकारे जाते हैं। पुनः वे कैसे हैं−(ब्रह्मयुजः) चित्शक्ति से युक्त हैं। पुनः (केशिनः) पर्वत, वृक्ष आदि केशों से संयुक्त हैं। वैसे हरि तुझको प्रकाशित करें। जैसे महती शिला को स्थानान्तरित करने के लिये कोई महान् रथ या यन्त्र ही समर्थ होता है, वैसे ही उस महान् परमात्मा को भी ढोनेवाले ये पृथिवी आदि जगत् ही हैं। वे ही यदि परमात्मा को प्रकाशित करें, तो हम लोग उसे जान सकते हैं, अन्यथा कोई उपाय नहीं ॥२४॥
भावार्थभाषाः - ब्रह्मज्ञान के लिये प्रथम यह जगत् अध्येतव्य है। क्योंकि कार्य ज्ञान से कर्ता के ज्ञान का संभव है। जैसे अष्टाध्यायी, रामायण आदि के पठन से पाणिनि और वाल्मीकि प्रभृतियों की बुद्धि का वैभव प्रतीत होता है। वैसे ही परमेश्वर कहाँ है, ऐसी जिज्ञासा होने पर सर्व वेद सर्व शास्त्र और सर्व आचार्य्य उत्तर देते हैं “इसी जगत् में सर्ववस्तु में वह विद्यमान है”। “हृदय में आत्मा है”। हृदय में ही अन्वेष्टव्य है। “आदित्य में वह है” आदित्य में अन्वेषणीय है” इस प्रकार के वाक्य प्रकृति की ओर हमको ले जाते हैं। अतः हे मनुष्यो ! अनन्त विभु को अनन्त जगत् में देखो। यह उपदेश इससे देते हैं ॥२४॥