अब श्रवणादि द्वारा परमात्मा की उपासना कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (नरः) हे उपासको ! (अद्रिभिः) आदरणीय चित्तवृत्तियों द्वारा (सोमं) परमात्मा का (सोत) साक्षात्कार करो (ईं) और (एनं) इसको (अप्सु, आधावत) हृदयाकाश में मनन करो। (वक्षणाभ्यः) नदीसदृश प्रवहनशील चित्तवृत्तियों की शुद्धि के लिये (गव्या, वस्त्रा, इव) रश्मिवत् श्वेतवस्त्र के समान (वासयन्तः) ज्ञान में आच्छादन करते हुए (इत्) निश्चय करके (निः, धुक्षन्) अन्तःकरण में दीप्त करो ॥१७॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे पुरुषो ! तुम चित्तवृत्तियों के निरोध द्वारा मनन करते हुए परमात्मा का साक्षात्कार करो। यहाँ नदी का दृष्टान्त इसलिये दिया है कि जैसे नदी का प्रवाह निरन्तर बहता रहता है, इसी प्रकार चित्तवृत्तियें निरन्तर प्रवाहित रहती हैं। उनकी चञ्चलता को स्थिर करने का एकमात्र उपाय “ज्ञान” है, अतएव ज्ञान द्वारा चित्तवृत्तियों का निरोध करके अन्तःकरण की पवित्रता द्वारा परमात्मा की उपासना में प्रवृत्त होना चाहिये। या यों कहो कि श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन द्वारा उपासना करते हुए परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिये अर्थात् वेदवाक्यों द्वारा तत्त्वार्थ का सुनना “श्रवण”, तर्कद्वारा युक्तियुक्त विषय को ग्रहण करना तथा अयुक्तियुक्त को छोड़ देना “मनन” और विजातीय प्रत्ययरहित ब्रह्माकारवृत्ति का नाम “निदिध्यासन” है, इत्यादि साधनों द्वारा उपासना करनेवाला उपासक अपने लक्ष्य को पूर्ण करता है ॥१७॥