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आ त्व१॒॑द्य स॑ब॒र्दुघां॑ हु॒वे गा॑य॒त्रवे॑पसम् । इन्द्रं॑ धे॒नुं सु॒दुघा॒मन्या॒मिष॑मु॒रुधा॑रामरं॒कृत॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā tv adya sabardughāṁ huve gāyatravepasam | indraṁ dhenuṁ sudughām anyām iṣam urudhārām araṁkṛtam ||

पद पाठ

आ । तु । अ॒द्य । स॒बः॒ऽदुघा॑म् । हु॒वे । गा॒य॒त्रऽवे॑पसम् । इन्द्र॑म् । धे॒नुम् । सु॒ऽदुघा॑म् । अन्या॑म् । इष॑म् । उ॒रुऽधा॑राम् । अ॒र॒म्ऽकृत॑म् ॥ ८.१.१०

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:1» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:7» वर्ग:11» मन्त्र:5 | मण्डल:8» अनुवाक:1» मन्त्र:10


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शिव शंकर शर्मा

इन्द्ररूपा धेनु और वृष्टि की स्तुति इस ऋचा से करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - इस लोक में धेनुओं और वृष्टियों से प्रजाओं को बहुत लाभ पहुँचते रहते हैं, इसलिये इनकी आकाङ्क्षा भी लोग सदा किया करते हैं। किन्तु ईश्वर इन गौवों और वृष्टियों से अधिक लाभकारी, मधुर वस्तुप्रदाता और विविध कन्द फूल मूलादिकों का वर्षाकारी है, तब उसकी सेवा क्यों न करते, यह इस ऋचा से दिखलाते हैं। यथा−मैं उपासक (अद्य+तु) आज (इन्द्रम्) इन्द्रस्वरूपा (धेनुम्) धेनु को अन्तःकरण से (आ+ह्वये) बुलाता हूँ। वह धेनु कैसी है (सबर्दुघाम्) सुमधुर दुग्ध देनेवाली पुनः (गायत्रवेपसम्) प्रशंसनीय वेगवाली (सुदुघाम्) सुखपूर्वक दुहानेवाली। ऐसी इन्द्ररूपा धेनु की मैं जैसे सेवा करता हूँ, वैसे ही सब किया करें। पुनः इन्द्ररूपा (अन्याम्) धेनु से अन्य (उरुधाराम्) बहुधारायुक्त (इषम्) वाञ्छनीय वृष्टि की भी स्तुति करता हूँ। पुनः जो इन्द्र (अरंकृतम्) बहुत-२ कार्य करनेवाला है ॥१०॥
भावार्थभाषाः - ईश्वर सर्वश्रेष्ठा और सर्वशान्तिप्रदाता धेनु और वृष्टि है। हे मनुष्यो ! उसको सेवो। देखो, इस पृथिवी पर कितने सुमधुर फूल, मूल, कन्द और ओषधि उसने बनाए हैं, जो कभी न्यून नहीं होते। जिस भक्ति से दोग्ध्री गौ की सेवा करते हो, उसी प्रेम से परमात्मा का भी भजन करो। वह धेनुवत् दूधों से और मेघवत् आनन्दवृष्टि से तुमको सदा पोसेगा, यह उपदेश इससे देते हैं ॥१०॥
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आर्यमुनि

अब परमात्मा को धेनुरूप वर्णन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्य) इस समय (सबर्दुघां) इष्टफल को पूर्ण करनेवाली (गायत्रवेपसं) प्रशंसनीय क्रियावाली (सुदुघां) शोभनफल देनेवाली (इषं) वाञ्छनीय (उरुधारां) अनेक पदार्थों को धारण करनेवाली (अरंकृतं) अलंकृत करनेवाली (अन्यां, धेनुं) लौकिक धेनु से विलक्षण धेनु (इन्द्रं) परमात्मा को (तु) शीघ्र (आहुवे) आह्वान करता हूँ ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मा को “धेनु” कथन किया है, जिसके अर्थ गौ तथा वाणी आदि हैं पर वे गौण हैं। “धेनु” शब्द का मुख्यार्थ ईश्वर में ही घटता है, क्योंकि “धीयते इति धेनुः”=जो पिया जाय, उसका नाम “धेनु” है और उसका साक्षात्कार करना ही पिया जाना है, इसलिये यहाँ प्रकरण से ईश्वर को कामधेनुरूप से वर्णन किया गया है, क्योंकि कामनाओं का पूर्ण करनेवाला परमात्मा ही है। वह कामधेनुरूप परमात्मा हमको प्राप्त होकर हमारे इष्टफल को पूर्ण करे ॥१०॥
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शिव शंकर शर्मा

इन्द्ररूपां धेनुं वृष्टिञ्चानया ऋचा स्तौति।

पदार्थान्वयभाषाः - अहमुपासकः। अद्य=अस्मिन्काले। तु। इन्द्रं=परमात्मरूपाम्। धेनुं=गाम्। अन्तःकरणेन आहुवे=आह्वयामि। कीदृशीं धेनुम्। सबर्दुघाम्=सबरः दुग्धस्य दोग्र्धीं=मधुरद्रव्यप्रदात्रीम्। सबरिति पयसो नामेति सम्प्रदायविदः। सबः पयो दोग्धीति सबर्दुघा। पुनः गायत्रवेपसं=गायत्रं गानीयं वेपो वेगो यस्यास्ताम्। भक्तानां गानं श्रुत्वा यो ह्याशुतरं तानुपगच्छति। पुनः सुदुघां=सुखेन दोग्धुं शक्यां सुप्रसादनीयामित्यर्थः। तथा च अन्यामितरामुक्तविलक्षणाम्। उरुधारां=बहुधाराम्। इषं=वाञ्छनीयां वृष्टिं परमात्मरूपां वृष्टिम्। अरंकृतम्=अलङ्कृतं सुभूषितं पर्याप्तकारिणं च। इन्द्रम् आह्वये ॥१०॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मा धेनुरूपेण वर्ण्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अद्य) इदानीं (सबर्दुघां) इष्टफलपूरयित्रीं (गायत्रवेपसं) प्रशस्यकर्माणं (सुदुघां) सुष्ठुफलदां (इषं) एष्टव्यां (उरुधारां) बहुविधपदार्थधरां (अरंकृतं) अलंकर्त्रीं (अन्यां, धेनुं) अस्याः धेनोः भिन्नां धेनुं=“धेनुमिव” (इन्द्रं) परमात्मानं (तु) क्षिप्रं (आहुवे) आह्वयामि ॥१०॥