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तं श॒ग्मासो॑ अरु॒षासो॒ अश्वा॒ बृह॒स्पतिं॑ सह॒वाहो॑ वहन्ति । सह॑श्चि॒द्यस्य॒ नील॑वत्स॒धस्थं॒ नभो॒ न रू॒पम॑रु॒षं वसा॑नाः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

taṁ śagmāso aruṣāso aśvā bṛhaspatiṁ sahavāho vahanti | sahaś cid yasya nīlavat sadhasthaṁ nabho na rūpam aruṣaṁ vasānāḥ ||

पद पाठ

तम् । श॒ग्मासः॑ । अ॒रु॒षासः॑ । अश्वाः॑ । बृह॒स्पति॑म् । स॒ह॒ऽवाहः॑ । व॒ह॒न्ति॒ । सहः॑ । चि॒त् । यस्य॑ । नील॑ऽवत् । स॒धऽस्थ॑म् । नभः॑ । न । रू॒पम् । अ॒रु॒षम् । वसा॑नाः ॥ ७.९७.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:97» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:22» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

यह ब्रह्मप्राप्ति नीचे के मन्त्र से निरूपण की जाती है।

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) उस (बृहस्पतिम्) परमात्मा का जो (सधस्थम्) जीव के अत्यन्त संनिहित है (नभः) और आकाश के समान सर्वत्र व्यापक है, (न, रूपम्) जिसका कोई रूप नहीं है, उस (अरुषम्) सर्वज्ञ परमात्मा को (वसानाः) विषय करती हुई (शग्मासः) आनन्द को अनुभव करनेवाली (अरुषासः) परमात्मपरायण (अश्वाः) शीघ्रगतिशील (सहवाहः) परमात्मा से जोड़नेवाली इन्द्रियवृत्तियाँ (वहन्ति) उस परमात्मा को प्राप्त कराती हैं, जो परमात्मा (सहः, चित्) बलस्वरूप है और (यस्य, नीळवत्) जिसका नीड अर्थात् घोंसले के समान यह ब्रह्माण्ड है ॥६॥
भावार्थभाषाः - श्रवण, मनन, निदिध्यासनादि साधनों से संस्कृत हुई अन्तःकरण की वृत्तियाँ उस नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव ब्रह्म को प्राप्त कराती हैं, जो सर्वव्यापक और शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदि गुणों से रहित है और कोटानुकोटि ब्रह्माण्ड जिसके एकदेश में जीवों के घोंसलों के समान एक समान एक प्रकार की तुच्छ सत्ता से स्थिर है। इस मन्त्र में उस भाव को विशाल किया है, जिसको “एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” ॥ ऋ. १०।९०।३॥। इस मन्त्र में वर्णन किया है कि कोटानुकोटि ब्रह्माण्ड उस परमात्मा के एकदेश में क्षुद्र जन्तु के घोंसले के समान स्थिर है, अथवा यों कहो कि “युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परितस्थुषः; रोचन्ते रोचना दिवि”। मं. १। सू. ६। १। जो योगी लोग सर्वव्यापक परमात्मा को योगज सामर्थ्य से अनुभव करते हैं अर्थात् योग की वृत्ति द्वारा उस परमात्मा का मनन करते हैं, वे ब्रह्म के प्रकाश को लाभ करके तेजस्वी और ब्रह्मवर्चस्वी बनते हैं ॥६॥
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आर्यमुनि

इयमेव ब्रह्मावगतिरधस्तनमन्त्रेण निरूप्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) तं बृहस्पतिं परमात्मानं (सधस्थम्) सर्वसन्निहितम् (नभः) आकाशमिव विभुं (न, रूपम्) रूपहीनं (अरुषम्) सर्वज्ञं (वसानाः) विषयं कुर्वती (शग्मासः) आनन्दयन्ती (अरुषासः) परमात्मपरायणा (अश्वाः) त्वरितगमना (सहवाहः) परमात्मना सह योजयन्ती इन्द्रियवृत्तिः (वहन्ति) तं प्रापयति, यः (सहः, चित्) बलस्वरूपः (यस्य नीळवत्) यस्येदं ब्रह्माण्डं नीडवत् कुलायवत् ॥६॥