पदार्थान्वयभाषाः - (वाजिनः) ब्रह्मविद्या के बलवाले ऋत्विग् लोग (यत्) जो (उपो, गुः) आपको आकर प्राप्त होते हैं और (विदथं) यज्ञ को “विदन्ति जानन्ति देवान्यत्र स विदथो यज्ञः” जिसमें देव=विद्वानों की सङ्गति हो, उसको विदथ=यज्ञ कहते हैं। “विदथ इति यज्ञनामसु पठितम्” निघं०। नित्य प्राप्त होते हैं (विप्राः) मेधावी लोग (धीभिः) कर्म्मों द्वारा (प्रमतिमिच्छमानाः) बुद्धि की इच्छा करते हुए (काष्ठां, अर्वन्तः, न) जैसे कि बलवाला पुरुष अपने व्रत की पराकाष्ठा अन्त को प्राप्त होता है, इस प्रकार (नक्षमाणाः) कर्मयोगी और ज्ञानयोगी विद्वान् अर्थात् जो कर्म्म तथा ज्ञान में व्याप्त हैं, (जोहुवतः) सत्कारपूर्वक यज्ञ में बुलाये हुए (ते, नरः) वे संसार के नेता होते हैं ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे यजमानो ! तुम ऐसे विद्वानों को अपने यज्ञों में बुलाओ, जो कर्म्म और ज्ञान दोनों प्रकार की विद्या में व्याप्त हों और आत्मिक बल रखने के कारण दृढ़व्रती हों, क्योंकि दृढ़व्रती पुरुष ही अपने लक्ष्य को प्राप्त हो सकता है, अन्य नहीं। इसी अभिप्राय से वेद में अन्यत्र भी कथन किया है कि “अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि” हे परमात्मन् ! आप व्रतों के पति हैं, कृपा करके मुझे भी दृढ़व्रती होने की शक्ति दें, ताकि मैं असत्य का त्याग करके सत्य पथ को ग्रहण करूँ। इसी भाव का उपदेश उक्त मन्त्र में किया गया है ॥३॥