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ई॒शा॒नासो॒ ये दध॑ते॒ स्व॑र्णो॒ गोभि॒रश्वे॑भि॒र्वसु॑भि॒र्हिर॑ण्यैः । इन्द्र॑वायू सू॒रयो॒ विश्व॒मायु॒रर्व॑द्भिर्वी॒रैः पृत॑नासु सह्युः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

īśānāso ye dadhate svar ṇo gobhir aśvebhir vasubhir hiraṇyaiḥ | indravāyū sūrayo viśvam āyur arvadbhir vīraiḥ pṛtanāsu sahyuḥ ||

पद पाठ

ई॒शा॒नासः॑ । ये । दध॑ते । स्वः॑ । नः॒ । गोभिः॑ । अश्वे॑भिः । वसु॑ऽभिः । हिर॑ण्यैः । इन्द्र॑वायू॒ इति॑ । सू॒रयः॑ । विश्व॑म् । आयुः॑ । अर्व॑त्ऽभिः । वी॒रैः । पृत॑नासु । स॒ह्युः॒ ॥ ७.९०.६

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:90» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:12» मन्त्र:6 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:6


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रवायू) हे विद्युत् और वायु आदि तत्त्वों की सूक्ष्मविद्या जाननेवाले विद्वानों ! तुम (ईशानासः) ईश्वरपरायण लोगों को ऐश्वर्यसम्पन्न करो। (ये) जो लोग (गोभिः) गौओं द्वारा (अश्वेभिः) अश्वों द्वारा (वसुभिः) धनों द्वारा (हिरण्यैः) दीप्तिमात्र वस्तुओं द्वारा (स्वर्णं दधते) स्वर्णादि रत्नों को धारण करते हैं और (सूरयः) वे शूरवीर लोग (विश्वं) सम्पूर्ण (आयुः) आयु को प्राप्त हों और (अर्वद्भिः, वीरैः) वीर सन्तानों से (पृतनासु) युद्धों में शत्रुओं को (सह्युः) परास्त करें ॥६॥
भावार्थभाषाः - विद्युत् आदि विद्याओं की शक्तिओं को जाननेवाले विद्वान् ही प्रजाओं   को ऐश्वर्यसम्पन्न बना सकते हैं। ऐश्वर्यसम्पन्न होकर ही प्रजा पूर्ण आयु को भोग सकती है। ऐश्वर्यसम्पन्न लोग ही युद्धों में पर पक्षों को परास्त करते हैं। परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे विद्वानों ! तुम सबसे पहिले अपने देश को ऐश्वर्यसम्पन्न करो, ताकि तुम्हारी प्रजायें वीर सन्तान उत्पन्न करके शत्रुओं को परास्त करें ॥ जो लोग यह कहते हैं कि वैदिक समय में भारतवर्ष में ऐश्वर्य नहीं था, उनको उक्त मन्त्र की रचना पर अवश्य दृष्टि डालनी चाहिये। इस मन्त्र में केवल गौ, घोड़े और धनादि वस्तुओं के ऐश्वर्य का ही वर्णन नहीं किया, प्रत्युत (हिरण्य) बड़े-बड़े दिव्य रत्नों का वर्णन स्पष्टरीति से उक्त मन्त्र में किया गया है, इतना ही नहीं किन्तु स्वर्ण शब्द भी इसमें स्पष्ट रीति से आया है, जिसमें किसी को भी विवाद नहीं ॥ वेदों में एक प्रकार के ऐश्वर्य की तो कथा ही क्या, किन्तु नाना प्रकार के ऐश्वर्यों का वर्णन पाया जाता है, जैसा कि मं० २ सू० १५ मन्त्र ३ में रत्नों के धारण करने का उपदेश है। इसी प्रकार मं० १ सू० २० मन्त्र १ में रत्नों का वर्णन है। एक दो उदाहरणों से क्या, सहस्रों मन्त्र वेदों में ऐसे पाये जाते हैं, जिनमें रत्नादि निधियों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। बहुत क्या, ऋग्वेद के पहिले मन्त्र में ही अग्नि को “रत्नधातमम्” का विशेषण दिया गया है, अर्थात् भौतिक अग्नि वा परमात्मा नाना प्रकार के रत्नों को धारण करनेवाले हैं। इसी भाव का उपदेश इस मन्त्र में है कि परमात्मा ईश्वरपरायण लोगों को नाना प्रकार की निधियों का स्वामी बनाता है, किन्तु केवल ईश्वर-अविश्वासी और उद्योगरहित लोगों को नहीं, किन्तु कर्मयोगी और ईश्वरविश्वासी लोगों को ईश्वर ऐश्वर्यसम्पन्न करता है। इसी अभिप्राय से परमात्मा ने इस मन्त्र में विद्युदादि विद्याओं के वेत्ता कर्मयोगी पुरुषों को वर्णन किया है ॥६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रवायू) हे विद्युद्वाय्वादिविषयकसूक्ष्मविद्यावेत्तारः ! यूयम् (ईशानासः) ईश्वरतत्परान् ऐश्वर्यवतः कुरुत (ये) ये हि (गोभिः) गोभिः साधनैः तथा (अश्वेभिः) अश्वैः साधनैः (वसुभिः) धनैः साधनैः (हिरण्यैः) दीप्तिमद्भिः सुरत्नैश्च (स्वर्णम्, दधते) स्वर्णादिसाररत्नानि धारयन्ति (सूरयः) ते च विद्वांसः सन्तः (विश्वम्) पूर्णं (आयुः) वयः प्राप्नुवन्तु, तथा (अर्वद्भिः, वीरैः) गतिप्रवरैर्वीरैः (पृतनासु) युद्धेषु (सह्युः) पराभवेयुः ॥६॥