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उ॒च्छन्नु॒षस॑: सु॒दिना॑ अरि॒प्रा उ॒रु ज्योति॑र्विविदु॒र्दीध्या॑नाः । गव्यं॑ चिदू॒र्वमु॒शिजो॒ वि व॑व्रु॒स्तेषा॒मनु॑ प्र॒दिव॑: सस्रु॒राप॑: ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ucchann uṣasaḥ sudinā ariprā uru jyotir vividur dīdhyānāḥ | gavyaṁ cid ūrvam uśijo vi vavrus teṣām anu pradivaḥ sasrur āpaḥ ||

पद पाठ

उ॒च्छन् । उ॒षसः॑ । सु॒ऽदिनाः॑ । अ॒रि॒प्राः । उ॒रु । ज्योतिः॑ । वि॒वि॒दुः॒ । दीध्या॑नाः । गव्य॑म् । चि॒त् । ऊ॒र्वम् । उ॒शिजः॑ । वि । व॒व्रुः॒ । तेषा॑म् । अनु॑ । प्र॒ऽदिवः॑ । सस्रुः॑ । आपः॑ ॥ ७.९०.४

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:90» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:12» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - जो लोग उक्त वायुविद्यावेत्ता विद्वान् की संगति में रहते हैं, उनके (उषसः) प्रभातवेलाओं सहित (सुदिनाः) सुन्दर दिन (अरिप्राः) निष्पाप (उच्छन्) व्यतीत होते हैं और वे (दीध्यानाः) ध्यान करते हुए (उरु) सर्वोपरि (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूप ब्रह्म को जान लेते हैं और (प्रदिवः) द्युलोक (आपः) जलों की (सस्रुः) वृष्टि करते हैं तथा विद्वान् लोग (तेषाम्) उनको (अनुः, वव्रुः) सुन्दर उपदेश करते हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे पुरुषो ! जो लोग वायुवत् सर्वत्र गतिशील विद्वानों की संगति में रहते हैं, उनके लिये सूर्योदयकाल सुन्दर प्रतीत होते हैं और उनके लिये सृवृष्टि और सम्पूर्ण ऐश्वर्य उपलब्ध होते हैं। बहुत क्या, योगी जनों की संगति करनेवाले पुरुष ध्यानावस्थित होकर उस परम ज्योति को उपलब्ध करते हैं, जिसका नाम परब्रह्म है ॥ तात्पर्य यह है कि विद्वानों की संगति के बिना उस पूर्णपुरुष का बोध कदापि नहीं हो सकता, इसलिये पुरुष को उचित है कि सदैव विद्वानों की संगति में रहे ॥४॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (उषसः) वायुविद्यावेतृसङ्गतानां जनानां प्रभातकालेन सह (सुदिनाः) शोभनदिनानि (अरिप्राः) निष्पापानि (उच्छन्) वियन्ति, तथा च ते (दीध्यानाः) ध्यायन्तः (उरु) सर्वातिशायि (ज्योतिः) ज्योतिःस्वरूपं ब्रह्म जानन्ति, तथा (प्रदिवः) द्युलोकः (आपः) जलं (सस्रुः) वर्षति तथा (अनु) विद्वांसः (तेषाम्) तेभ्यः (अणुः वव्रुः) उपदिशन्ति ॥४॥