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उ॒त स्वया॑ त॒न्वा॒३॒॑ सं व॑दे॒ तत्क॒दा न्व१॒॑न्तर्वरु॑णे भुवानि । किं मे॑ ह॒व्यमहृ॑णानो जुषेत क॒दा मृ॑ळी॒कं सु॒मना॑ अ॒भि ख्य॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

uta svayā tanvā saṁ vade tat kadā nv antar varuṇe bhuvāni | kim me havyam ahṛṇāno juṣeta kadā mṛḻīkaṁ sumanā abhi khyam ||

पद पाठ

उ॒त । स्वया॑ । त॒न्वा॑ । सम् । व॒दे॒ । तत् । क॒दा । नु । अ॒न्तः । वरु॑णे । भु॒वा॒नि॒ । किम् । मे॒ । ह॒व्यम् । अहृ॑णानः । जु॒षे॒त॒ । क॒दा । मृ॒ळी॒कम् । सु॒ऽमनाः॑ । अ॒भि । ख्य॒म् ॥ ७.८६.२

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:86» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:8» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:2


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आर्यमुनि

अब परमात्मा की उपासना का प्रकार कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) अथवा (स्वया, तन्वा) अपने शरीर से (सं) भले प्रकार (तत्) उस उपास्य के साथ (वदे) आलाप करूँ (कदा) कब (नु) निश्चय करके (वरुणे, अन्तः) उस उपास्य देव के स्वरूप में (भुवानि) प्रवेश करूँगा (किं) क्या परमात्मा (मे) मेरी (हव्यं) उपासनारूप भेंट को (अहृणानः) प्रसन्न होकर (जुषेत) स्वीकार करेंगे, (कदा) कब (मृळीकं) उस सर्वसुखदाता को (सुमनाः) संस्कृत मन द्वारा (अभि, ख्यं) सब ओर से ज्ञानगोचर करूँगा ॥२॥
भावार्थभाषाः - उपासक पुरुष उपासनाकाल में उस दिव्यज्योति परमात्मा से प्रार्थना करता है कि हे भगवन् ! आप मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें कि मैं आपके समीप होकर आपसे आलाप करूँ, हे सर्वनियन्ता भगवन् ! आप मेरी उपासनारूप भेंट को स्वीकार करके ऐसी कृपा करें कि मैं सर्वसुखदाता आपको अपने पवित्र मन द्वारा ज्ञानगोचर करूँ, आप ही की उपासना में निरन्तर रत रहूँ और एकमात्र आप ही मेरे सम्मुख लक्ष्य हों अर्थात् उपासक पुरुष नानाप्रकार के तर्क-वितर्कों से यह निश्चय करता है कि मैं ऐसे साधन सम्पादन करूँ, जिनसे उस आनन्दस्वरूप में निमग्न होकर आनन्द का अनुभव करूँ ॥२॥
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आर्यमुनि

अथ परमात्मोपासनाप्रकारः कथ्यते। 

पदार्थान्वयभाषाः - (उत) किं (स्वया, तन्वा) स्वशरीरेण (सम्) सम्यक् (तत्) तेनोपास्येन सह (वदे) आलापं करवाणि (कदा) कस्मिन्काले (तु) निश्चयं (वरुणे, अन्तः) तस्य भजनीयस्य स्वरूपे (भुवानि) प्रविशानि (किम्) किमीश्वरः (मे) मम (हव्यम्) उपासनारूपमुपहारं (अहृणानः) अक्रुध्यन् (जुषेत) स्वीकुर्यात्   (कदा) क्व काले (मृळीकम्) तं सर्वसुखप्रदातारं (सुमनाः) शोभनमनस्कः (अभि, ख्यम्) अभितः पश्येयम् ॥२॥