पदार्थान्वयभाषाः - हे सेनाधीश ! (हि) निश्चय करके (आपः, चित्) सर्वत्र व्यापक होकर (स्वयशसः) अपने यश से (सदःसु) उपासनीय स्थानों में (देवीः) दिव्यशक्तिसम्पन्न (इन्द्रं) परमैश्वर्य्यवान् (वरुणं) सबको स्वशक्ति में रखनेवाले परमात्मा की (देवता) दिव्यशक्तियों को (धुः) धारण करके (अन्यः) कोई (कृष्टीः) प्रजा को (धारयति) धारण करता है, जो (प्रविक्ताः) भिन्न-भिन्न प्रकार के मनुष्यों के कर्मों को जानता है, (अन्यः) अन्य (वृत्राणि) मेघों के समान नभोमण्डल में फैले हुए (अप्रतीनि) वश में न आनेवाले शत्रुओं का (हन्ति) हनन करता है ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष परमात्मशक्तियों को धारण करके भिन्न-भिन्न कर्मों के ज्ञाता हैं, वे परमैश्वर्य्ययुक्त परमात्मा की उपासना करते हुए न्यायाधीश के पद पर स्थित होते हैं और जो युद्धविद्याविशारद होते हैं, वे आकाशस्थ शत्रु की सेना को मेघमण्डल के समान अपने प्रबल वायुसदृश वेग से छिन्न-भिन्न करते हैं अर्थात् दिव्यशक्तिसम्पन्न राजपुरुष न्यायाधीश बनकर प्रजा में उत्पन्न हुए दोषों को नाश करके उसको धर्मपथ पर चलाते और दूसरे सेनाधीश बनकर वश में न आनेवाले शत्रुओं को विजय करके प्रजा में शान्ति फैलाते हुए परमात्मा की आज्ञा का पालन करते हैं ॥३॥