अब प्रेम रज्जु से बँधे हुए राष्ट्र की दृढ़ता का वर्णन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (युवोः) हे राजा तथा राजपुरुषो ! तुम्हारा (राष्ट्रं) राज्य (द्यौः, बृहत्, इन्वति) द्युलोकपर्य्यन्त बड़ा विस्तृत हो, (यौ) तुम दोनों (परि) सब ओर से (सेतृभिः, अरज्जुभिः, सिनीथः) प्रेमरूप रज्जुओं में बँधे हुए (नः) हमको प्राप्त हो (उ) और (लोकं) तुम्हारे लोक को (इन्द्रः) विद्युद्विद्यावेत्ता विद्वान् (कृणवत्) रक्षा करे, (वरुणस्य, हेळः) जलविद्यावेत्ता विद्वान् का आक्रमण (वृज्याः) तुम पर न हो और तुम प्रार्थना करो कि (नः) हमको (उरुं) विस्तृत लोकों की प्राप्ति हो ॥२॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषो ! तुम सदैव अपने राष्ट्र की वृद्धि में लगे रहो और उसको प्रेमरूप रज्जु के बन्धन से ऐसा बाँधो, कि वह किसी प्रकार से भी शिथिलता को प्राप्त न हो। अधिक क्या, जिनके राष्ट्र दृढ़ बन्धनों से बँधे हुए हैं, उन पर न कोई जलयानों द्वारा आक्रमण कर सकता और न कोई विद्युत् आदि शक्तियों से उसको हानि पहुँचा सकता है। जो राजा अपने राष्ट्र को दृढ़ बनाने के लिए प्रजा में प्रेम उत्पन्न करता अर्थात् अन्याय और दुराग्रह का त्याग करता हुआ अपने को विश्वासार्ह बनाता है, तब वे दोनों परस्पर उत्पन्न होते और पृथिवी से लेकर द्युलोकपर्य्यन्त सर्वत्र उनका अटल प्रभाव हो जाता है, इसलिए उचित है कि राजा अपने राष्ट्र को दृढ़ बनाने के लिए प्रजा में प्रेम उत्पन्न करे। प्रजा में प्रेम का संचार करनेवाला राजा ही अपने सब कार्यों को विधिवत् करता और वही अन्ततः परमात्मा को प्राप्त होता है ॥२॥