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वृ॒त्राण्य॒न्यः स॑मि॒थेषु॒ जिघ्न॑ते व्र॒तान्य॒न्यो अ॒भि र॑क्षते॒ सदा॑ । हवा॑महे वां वृषणा सुवृ॒क्तिभि॑र॒स्मे इ॑न्द्रावरुणा॒ शर्म॑ यच्छतम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vṛtrāṇy anyaḥ samitheṣu jighnate vratāny anyo abhi rakṣate sadā | havāmahe vāṁ vṛṣaṇā suvṛktibhir asme indrāvaruṇā śarma yacchatam ||

पद पाठ

वृ॒त्राणि॑ । अ॒न्यः । स॒म्ऽइ॒थेषु॑ । जिघ्न॑ते । व्र॒तानि॑ । अ॒न्यः । अ॒भि । र॒क्ष॒ते॒ । सदा॑ । हवा॑महे । वा॒म् । वृ॒ष॒णा॒ । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । अ॒स्मे इति॑ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । शर्म॑ । य॒च्छ॒त॒म् ॥ ७.८३.९

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:83» मन्त्र:9 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:5» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:9


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अन्यः, समिथेषु) एक शूरवीर युद्धों में (वृत्राणि, जिघ्नते) शत्रुओं को विजय करता (अन्यः) एक (सदा) सदैव (अभि) सर्वप्रकार से (व्रतानि) नियमों की (रक्षते) रक्षा करता है, (इन्द्रावरुणा) इन्द्र और वरुणरूप योद्धाओं ! (वां) आप (अस्मे) हमको (शर्म, यच्छतं) सुख प्राप्त करायें, क्योंकि आप (वृषणा) युद्ध की कामना पूर्ण करनेवाले और (सुवृक्तिभिः) शुभ मार्गों में प्रवृत्त करानेवाले हैं, इसलिये (हवामहे) हम आपका आह्वान करते हैं ॥९॥
भावार्थभाषाः - जो राजा लोग व्रतों की रक्षा करते और दुष्ट शत्रुओं का दमन करते हैं, हे अस्त्रशस्त्रविद्यावेत्ता विद्वानों ! तुम उनकी सहायता करो, क्योंकि व्रतपालन तथा दुष्टदमन किये बिना प्रजा में सुख का संचार कदापि नहीं हो सकता, इसी अभिप्राय से वेद में अन्य उपदेश किया है कि–अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ॥ यजु०॥१॥५॥ अर्थ–हे व्रतों के पति परमात्मा ! मैं आपकी कृपा से व्रत का पालन करुँ, ताकि असत्यमार्ग को त्याग कर सत्य पथ को प्राप्त होऊँ। इस प्रकार वेदों में सर्वत्र नियमपालनरूप व्रत का बलपूर्वक उपदेश किया गया है। उसी की दृढ़ता का इस मन्त्र में वर्णन किया है। या यों कहो कि परमात्मा दृढ़व्रती लोगों के सदैव सहायक होते हैं और परमात्मा के नियम पर चलनेवाले पुरुषों को भी उचित है कि वे ऐसे भावोंवाले पुरुषों के सहायक बनें ॥९॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अन्यः, समिथेषु) एको योद्धा युद्धक्षेत्रे (वृत्राणि, जिघ्नते) शत्रूञ्जयति (अन्यः) एकः (सदा) सततं (अभि) सर्वथा (व्रतानि) नियमान् (रक्षते) संसेव्य रक्षति (इन्द्रावरुणा) भो   इन्द्रवरुणस्वरूपा योद्धारः ! (वाम्) यूयम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (शर्म यच्छतम्) सुखं प्रयच्छत यतो यूयम् (वृषणा) योद्धुरभिलाषप्रदातारः (सुवृक्तिभिः) शुभमार्गप्रवर्त्तकाश्च स्थः, अतः (हवामहे) वयं युष्मानाह्वयामः ॥९॥