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अ॒स्मे इन्द्रो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॑र्य॒मा द्यु॒म्नं य॑च्छन्तु॒ महि॒ शर्म॑ स॒प्रथ॑: । अ॒व॒ध्रं ज्योति॒रदि॑तेॠता॒वृधो॑ दे॒वस्य॒ श्लोकं॑ सवि॒तुर्म॑नामहे ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asme indro varuṇo mitro aryamā dyumnaṁ yacchantu mahi śarma saprathaḥ | avadhraṁ jyotir aditer ṛtāvṛdho devasya ślokaṁ savitur manāmahe ||

पद पाठ

अ॒स्मे इति॑ । इन्द्रः॑ । वरु॑णः । मि॒त्रः । अ॒र्य॒मा । द्यु॒म्नम् । य॒च्छ॒न्तु॒ । महि॑ । शर्म॑ । स॒ऽप्रथः॑ । अ॒व॒ध्रम् । ज्योतिः॑ । अदि॑तेः । ऋ॒त॒ऽवृधः॑ । दे॒वस्य॑ । श्लोक॑म् । स॒वि॒तुः । म॒ना॒म॒हे॒ ॥ ७.८२.१०

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:82» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:6» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:10


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आर्यमुनि

अब राजपुरुषों से धन और परमात्मा से रक्षा की प्रार्थना करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) वैद्युतविद्यावेत्ता (वरुणः) जलीयविद्या के ज्ञाता (मित्रः) सबके मित्र (अर्यमा) न्याय करनेवाले जो राजकीय पुरुष हैं, वे (अस्मे) हमें (द्युम्नं) ऐश्वर्य्य (यच्छन्तु) प्राप्त करायें और (सप्रथः, महि, शर्म) सब से बड़ा सुख (ज्योतिः) स्वयंप्रकाश परमात्मा हमको नित्य प्रदान करे, (अवध्रं) हमको नाश न करे, ताकि हम (अदितेः) अखण्डनीय (ऋतावृधः) सत्यरूप यज्ञ के आधार (देवस्य) दिव्यशक्तिसम्पन्न (सवितुः) स्वतःप्रकाश परमात्मा के (श्लोकं) यज्ञ को (मनामहे) सदा गान करते रहें ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का आशय यह है कि जिस प्रकार ऋग्, यजुः, साम, अथर्व ये चारों वेद परमात्मा की आज्ञापालन कराने के लिए चार विभागों में विभक्त हैं, इसी प्रकार राज्यशासन भी चार विभागों में विभक्त जानना चाहिये अर्थात् आग्नेयास्त्र तथा वारुणास्त्रविद्या जाननेवालों से सैनिकरक्षण और राजमन्त्री तथा न्यायाधीश इन दोनों से राज्यप्रबन्ध, इस प्रकार उक्त चारों से धन की याचना करते हुए सदा ही इनके कल्याण का शुभचिन्तन करते  रहो अर्थात् सम्राट् के राष्ट्रप्रबन्ध के उक्त चारों से सांसारिक सुख की अभिलाषा करो और दिव्यशक्तिसम्पन्न परमात्मा से नित्य सुख की प्रार्थना करते हुए उनके दिव्य गुणों का सदा गान करते रहो, जिससे तुम्हें सद्गति प्राप्त हो ॥१०॥ यह ८२वाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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आर्यमुनि

अथ राजपुरुषेभ्यो धनं परमात्मनो रक्षा च प्रार्थ्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रः) वैद्युतविद्यावेत्तारः (वरुणः) जलविद्यावेत्तारः (मित्रः) जगतः सुहृदः (अर्यमा) न्यायकर्तारश्च ये राजपुरुषास्ते (अस्मे) अस्मभ्यम् (द्युम्नम्) ऐश्वर्यं (यच्छन्तु) ददतु, तथा च (सप्रथः, महि, शर्म) सुप्रसिद्धं महत् सुखं (ज्योतिः) परमात्मा नित्यं ददातु (अवध्रम्) अस्मान्सदा रक्षतु, यस्माद्भवम् (अदितेः) अखण्डनीयस्य (ऋतावृधः) सत्यरूपयज्ञस्याधारं (देवस्य) दिव्यशक्तिसम्पन्नं (सवितुः) स्वतःप्रकाशं (श्लोकम्) पुण्यस्तुतिं (मनामहे) गायेम शश्वत् ॥१०॥ इति त्र्यशीतितमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥