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इ॒न्धे राजा॒ सम॒र्यो नमो॑भि॒र्यस्य॒ प्रती॑क॒माहु॑तं घृ॒तेन॑। नरो॑ ह॒व्येभि॑रीळते स॒बाध॒ आग्निरग्र॑ उ॒षसा॑मशोचि ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indhe rājā sam aryo namobhir yasya pratīkam āhutaṁ ghṛtena | naro havyebhir īḻate sabādha āgnir agra uṣasām aśoci ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒न्धे। राजा॑। सम्। अ॒र्यः। नमः॑ऽभिः। यस्य॑। प्रती॑कम्। आऽहु॑तम्। घृ॒तेन॑। नरः॑। ह॒व्येभिः॑। ई॒ळ॒ते॒। स॒ऽबाधः॑। आ। अ॒ग्निः। अग्रे॑। उ॒षसा॑म्। अ॒शो॒चि॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:8» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:11» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब वह राजा कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (नरः) नायक मनुष्य (हव्येभिः) देने योग्य जनों वा (नमोभिः) अन्नादि से होनेवाले सत्कारों के साथ (घृतेन) प्रदीप्तकारक जल वा घी से (यस्य) जिसकी (आहुतम्) स्पर्द्धा ईर्षा को प्राप्त (प्रतीकम्) सेना की निश्चय करानेवाली (ईळते) स्तुति करते हैं वह (समर्यः) युद्ध में कुशल (राजा) प्रकाशमान तेजस्वी मैं उनको (इन्धे) प्रदीप्त करता हूँ जैसे (उषसाम्) प्रभात समय होने से (अग्रे) पहिले (सबाधः) बाध अर्थात् संयोग से बने सब संसार के साथ वर्त्तमान (अग्निः) अग्नि के तुल्य तेजस्वी जन (आ, अशोचि) प्रकाशित किया जाता है, वैसे मैं शत्रुओं के सम्मुख अपनी सेना का प्रकाशक और उत्साह देनेवाला होऊँ ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो जिस के भृत्य उपकार करनेवाले हों, वे उपकार को प्राप्त हुए से सदा सत्कार पाने योग्य हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ स राजा कीदृशः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

ये नरो हव्येभिर्नमोभिस्सह घृतेन यस्याहुतं प्रतीकमीळते स समर्यो राजाऽहं तानिन्धे। यथोषसामग्रे सबाधोऽग्निराशोचि तथाऽहं शत्रूणां सम्मुखे स्वसेनाप्रकाशक उत्साहकश्च भवेयम् ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्धे) प्रदीपयामि (राजा) प्रकाशमानः (समर्यः) युद्धकुशलः (नमोभिः) अन्नादिभिस्सत्कारैर्वा (यस्य) (प्रतीकम्) प्रत्येति येन तत्सैन्यम् (आहुतम्) स्पर्द्धितम् (घृतेन) प्रदीपनेनोदकेनाज्येन वा (नरः) नेतारो मनुष्याः (हव्येभिः) होतुं दातुमर्हैः (ईळते) स्तुवन्ति (सबाधः) बाधेन सह वर्त्तमानः (आ) (अग्निः) पावक इव (अग्रे) पुरस्तात् (उषसाम्) प्रभातानाम् (अशोचि) प्रकाश्यते ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! ये यस्य भृत्या उपकारकाः स्युस्त उपकृतेन सदा सत्करणीयाः ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात अग्नीच्या दृष्टांताने राजाच्या कर्तव्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याचे सेवक उपकारक असतात तेच सदैव सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ १ ॥