पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सत्यवादी विद्वानों ! (यः) जो (होता) जिज्ञासु (यजते) यज्ञ करता (च) और (वन्दते) वन्दना करता है, वह (प्रियः) परमात्मा का प्रिय (मनुषः) पुरुष (निसादि) उसी में स्थित होकर (अश्नीतं मध्वं) मधुविद्या का रसपान करता अर्थात् मधुविद्या का जाननेवाले होता है। (अश्विना) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! वह पुरुष (विदथेषु) यज्ञों में (प्रयस्वान्) अन्नादि पदार्थों का पान करके (वां) तुम्हारा (वोचे) आह्वान करता (आ) और (उपाके) तुम्हारे समीप स्थिर होकर ब्रह्मविद्या का लाभ करता है ॥२॥
भावार्थभाषाः - जो पुरुष यज्ञादि कर्म करता हुआ परमात्मा की उपासना में प्रवृत्त रहता है, वह परमात्मा का प्रिय पुरुष परमात्माज्ञापालन करता हुआ मधुविद्या का रसपान करनेवाला होता है। मधुविद्या का विस्तारपूर्वक वर्णन “बृहदारण्यकोपनिषद्” में किया गया है। विशेष जाननेवाले वहाँ देख लें, यहाँ विस्तारभय से उद्घृत नहीं किया, वही पुरुष ऐश्वर्य्यशाली होकर यज्ञों में दान देनेवाला होता, वही विद्वानों का सत्कार करनेवाला होता और वही ब्रह्मविद्या का अधिकारी होता है। इससे सिद्ध है कि याज्ञिक पुरुष ही ब्रह्म का समीपी होता है, अन्य नहीं ॥२॥