अब विद्वान् उपदेशकों द्वारा मनुष्यमात्र का कल्याण कथन करते हैं।
पदार्थान्वयभाषाः - (नासत्या) हे सत्यवादी विद्वानों ! तुम लोग (आ पश्चातात्) भले प्रकार पश्चिम दिशा से (आ पुरस्तात्) पूर्व दिशा से (अधरात्) नीचे की ओर से (उदक्तात्) ऊपर की ओर से (आ विश्वतः) सब ओर से (पाञ्चजन्येन) पाँचों प्रकार के मनुष्यों का (राया) ऐश्वर्य्य बढ़ाओ और (अश्विना) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! आप लोग पाँचों प्रकार के मनुष्यों को (आ) भले प्रकार (यातं) प्राप्त होकर सब यह प्रार्थना करो कि हे परमात्मन् ! (यूयं) आप (सदा) सदा (स्वस्तिभिः) मङ्गलरूप वाणियों द्वारा (नः) हमारे ऐश्वर्य्य की (पात) रक्षा करें ॥५॥
भावार्थभाषाः - मन्त्र में जो “पञ्चजनाः” पद आया है, वह वैदिक सिद्धान्तानुसार पाँच प्रकार के मनुष्यों का वर्णन करता है अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और पाँचवें दस्यु, जिनको ‘निषाद’ भी कहते हैं। वास्तव में वर्ण चार ही हैं, परन्तु मनुष्यमात्र का कल्याण अभिप्रेत होने के कारण पाँचवें दस्युओं को भी सम्मिलित करके परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे सत्यवादी विद्वानों ! आप लोग सब ओर से मनुष्यमात्र को प्राप्त होकर वैदिक धर्म का उपदेश करो, जिससे सब प्रजाजन सुकर्मों में प्रवृत्त होकर ऐश्वर्य्यशाली हों ॥ तात्पर्य्य यह है कि जो पुरुष सदा विद्वानों की सङ्गति में रहते और जिनको विद्वज्जन सब ओर से आकर प्राप्त होते हैं, वे पवित्र भावोंवाले होकर सदा ऐश्वर्य्यसम्पन्न हुए सङ्गति को प्राप्त होते हैं ॥ यहाँ “पञ्चजनाः” शब्द से यह भी है कि जिनमें गुण कर्म स्वभाव से कोई वर्ण स्थिर नहीं किया जा सकता था, उनको दस्यु वा निषाद कहते थे, क्योंकि वेद में चारों वर्णों का वर्णन स्पष्ट है। इससे सिद्ध है कि आर्यों में वर्णव्यवस्था वैदिक समय से गुणकर्मानुसार मानी जाती थी, जन्म से नहीं ॥ जिन लोगों का यह कथन है कि सनातन समय में वर्णव्यवस्था जन्म पर निर्भर थी, यह सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि “ब्रह्मा देवानां पदवीं” ॥ ऋ० मं० ९।९६ ॥ और “तमेव ऋषिं तमु ब्रह्माणमाहुः” ॥ ऋ० म० १०।१०७ ॥ इत्यादि मन्त्रों में स्पष्ट है कि ब्रह्मा, ऋषि वा ब्राह्मणत्वादि धर्म वेद में सब गुण-कर्मानुसार माने गये हैं, जन्म से नहीं ॥ और जो लोग यह कहते हैं कि वैदिक समय में वर्णव्यवस्था थी ही नहीं और पुरुषसूक्तादि स्थल जिनमें वर्णव्यवस्था पाई जाती है, वे पीछे से मिलाये गये हैं, यह कथन भी ठीक नहीं, क्योंकि यदि पुरुषसूक्त पीछे से मिलाया हुआ होता, तो किसी एक वेद में होता, परन्तु चारों वेदों में पाये जाने और “पञ्चजनाः” आदि शब्दों से पाँच प्रकार के मनुष्यों का ग्रहण होने से स्पष्ट है कि “ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्” ॥यजु० ३१।१४॥ इत्यादि मन्त्रों में परमात्मा ने गुणकर्मानुसार वर्णों का विभाग किया है, जन्मानुसार नहीं और यह भाव पुरुषसूक्त में स्पष्ट है अथवा इसके अर्थ ये भी हैं कि जो लोग प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान इन पाँचों में होनेवाली प्राणविद्या के ऐश्वर्य्य को जाननेवाले योगीजन हैं। उनसे शिक्षा लेने का विधान उक्त मन्त्र में है। वर्णविषयक जो इस मन्त्र के अर्थ हैं, वे आधिभौतिक हैं और प्राणविद्याविषयक जो अर्थ किये हैं, वे आध्यात्मिक हैं, इसलिए कोई विरोध नहीं ॥५॥ यह ७२वाँ सूक्त और १९वाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥