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वि चेदु॒च्छन्त्य॑श्विना उ॒षास॒: प्र वां॒ ब्रह्मा॑णि का॒रवो॑ भरन्ते । ऊ॒र्ध्वं भा॒नुं स॑वि॒ता दे॒वो अ॑श्रेद्बृ॒हद॒ग्नय॑: स॒मिधा॑ जरन्ते ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vi ced ucchanty aśvinā uṣāsaḥ pra vām brahmāṇi kāravo bharante | ūrdhvam bhānuṁ savitā devo aśred bṛhad agnayaḥ samidhā jarante ||

पद पाठ

वि । च॒ । इत् । उ॒च्छन्ति॑ । अ॒श्वि॒नौ॒ । उ॒षसः॑ । प्र । वा॒म् । ब्रह्मा॑णि । का॒रवः॑ । भ॒र॒न्ते॒ । ऊ॒र्ध्वम् । भा॒नुम् । स॒वि॒ता । दे॒वः । अ॒श्रे॒त् । बृ॒हत् । अ॒ग्नयः॑ । स॒म्ऽइधा॑ । ज॒र॒न्ते॒ ॥ ७.७२.४

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:72» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:19» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:5» मन्त्र:4


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आर्यमुनि

अब अध्यापक तथा उपदेशकों के लिये उपदेश का काल कथन करते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विनौ) हे अध्यापक तथा उपदेशको ! (चेत्) जब (वि) विशेषतया (सविता देवः) परमात्म देव (भानुं) सूर्य्य को (ऊर्ध्वम् अश्रेत्) ऊपर को आश्रय=उदय करता (उच्छन्ति उषसः) जब उषःकाल का विकास होता, जब (बृहत् अग्नयः) बड़ी अग्नि (समिधा जरन्ते) समिधाओं द्वारा प्रज्वलित की जाती और जब (कारवः) स्तोता लोग (ब्रह्माणि) वेद को (प्र भरन्ते) भले प्रकार धारण करते हैं, उस काल में (वां) आप लोग ब्रह्मज्ञान का उपदेश करें ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में परमात्मदेव उपदेश करते हैं कि हे विद्वान् उपदेशको ! आपका कर्तव्य यह है कि आप प्रातः सूर्य्योदयकाल में जब प्रजाजन अग्निहोत्र करते तथा स्तोता लोग वेद का पाठ करते हैं, उस काल में अज्ञान का मार्जन करके जिज्ञासुओं को सत्योपदेश करो, जिससे वे विद्याध्यन तथा वेदोक्त कर्तव्यपालन में सदा तत्पर रहें। इस मन्त्र में परमात्मा ने ब्रह्मविद्याध्यन का सूर्य्योदयकाल ही बतलाया है अर्थात् यह उपदेश किया है कि प्रजाजन उषःकाल में निद्रा से निवृत्त होकर शरीर को शुद्ध करके सन्ध्या अग्निहोत्र के पश्चात् ब्रह्मविद्या के अध्ययन तथा उपदेशश्रवण में तत्पर हों ॥४॥
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आर्यमुनि

अथोपदेशसमय उपदिश्यते।

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विनौ) हे अध्यापकाः तथोपदेशकाः ! (चेत्) यदा (सविता देवः) सर्वोत्पादकः परमात्मा (भानुम्) सूर्य्यम् (ऊर्ध्वम् अश्रेत्) उपरिष्टाद् उदयं कारयति यदा (उषसः उच्छन्ति) उषसः प्रकाशो भवति, यस्मिन्काले (बृहत् अग्नयः) महान्तोऽग्नयः (समिधा जरन्ते) समिद्भिः दीप्यन्ते अथ च यदा (कारवः) स्तोतारः (ब्रह्माणि) वेदान् (प्रभरन्ते) पठन्ति तदा (वाम्) यूयं ब्रह्मज्ञानम् उपदिशत ॥४॥