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यानि॒ स्थाना॑न्यश्विना द॒धाथे॑ दि॒वो य॒ह्वीष्वोष॑धीषु वि॒क्षु । नि पर्व॑तस्य मू॒र्धनि॒ सद॒न्तेषं॒ जना॑य दा॒शुषे॒ वह॑न्ता ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yāni sthānāny aśvinā dadhāthe divo yahvīṣv oṣadhīṣu vikṣu | ni parvatasya mūrdhani sadanteṣaṁ janāya dāśuṣe vahantā ||

पद पाठ

यानि॑ । स्थाना॑नि । अ॒श्वि॒ना॒ । द॒धाथे॒ इति॑ । दि॒वः । य॒ह्वीषु॑ । ओष॑धीषु । वि॒क्षु । नि । पर्व॑तस्य । मू॒र्धनि॑ । सद॑न्ता । इष॑म् । जना॑य । दा॒शुषे॑ । वह॑न्ता ॥ ७.७०.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:70» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:17» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे ज्ञानी विज्ञानी विद्वानों ! (यानि, स्थानानि, दधाथे) जिन-जिन स्थानों को आप लोग धारण करते हैं, वे (दिवः) द्युलोकसम्बन्धी हों (यह्वीषु, ओषधीषु) चाहे अन्न तथा ओषधिविषयक हों (विक्षु) चाहे प्रजासम्बन्धी हों, (नि) निश्चय करके (पर्वतस्य मूर्धनि) पर्वत की चोटियों पर हों, इन सब स्थानों में (सदन्ता) स्थिर हुए आप (दाशुषे, जनाय) दानी याज्ञिक लोगों के (इषं) ऐश्वर्य को (वहन्ता) बढ़ाओ ॥ ज्ञानी तथा विज्ञानी विद्वानों के लिये परमात्मा आज्ञा देते हैं कि जिन-जिन स्थानों में प्रजाजन निवास करते हैं, उन स्थानों में जाकर प्रजा के लिए ऐश्वर्य्य की वृद्धि करो। नाना प्रकार की ओषधियों के तत्त्वों को जानकर उनका प्रजा में प्रजाओं को संगठन की नीति-विद्या अथवा उच्च प्रदेशों के ऊपर स्थिर होने के लिए विमानविद्या की शिक्षा दो। विद्याओं को उपलब्ध करते-कराते हुए अपने याज्ञिकों का ऐश्वर्य्य बढ़ाओ ॥३॥
भावार्थभाषाः - तात्पर्य्य यह है कि जिस देश के विद्वान् ओषधियों द्वारा किंवा प्रजासम्बन्धी नाना प्रकार की विद्याओं द्वारा अपने ऐश्वर्य्य को नहीं बढ़ाते, उस देश के याज्ञिक कदापि उन्नति को प्राप्त नहीं होते, इसलिए विद्वानों का मुख्य कर्त्तव्य है कि विद्यासम्पन्न होकर याज्ञिकों के ऐश्वर्य्य को बढ़ायें ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अश्विना) हे ज्ञानिविज्ञानिपुरुषाः ! (यूयम्) यदात्मकानि (स्थानानि) स्थलानि (दधाथे) धारयत, तानि (दिवः) द्युलोकस्य स्युः, द्युलोकसम्बन्धीनि स्युरित्यर्थः (यह्वीषु, ओषधीषु) यद्वा ओषधीनां (विक्षु) प्रजानां च सम्बन्धीनि स्युः, अन्यच्च तानि (नि) निश्चयेन (पर्वतस्य) गिरेः (मूर्धनि) स्युः, एषु स्थलेषु (सदन्ता) स्थिता भवन्तः (दाशुषे, जनाय) उदाराय यज्ञकर्त्रे (इषम्) ऐश्वर्यं  (वहन्ता) वर्धयन्तु ॥३॥