पदार्थान्वयभाषाः - (दस्रा, यशसा) हे शत्रुओं को दमन करनेवाले यशस्वी राजपुरुषो ! (वां) तुम्हारा (स्वश्वा) बलिष्ठ घोड़ोंवाला (रथः) रथ (मधुमन्तं, निधि) मधुररसवाले देशों की निधियों को (पिबाथः) पान करता हुआ (वध्वा) अपने उद्देश्यरूप लक्ष्य में स्थिर (वर्तनिभ्यां) गतिशील पहियों से (वि, बाधते) सब बाधा=रुकावटों को भले प्रकार दूर करता हुआ (दिवः, अन्तान्) द्युलोक के अन्त तक पहुँच कर (अर्वाक्, यातं) मेरे सम्मुख आवे ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषो ! तुम्हारा इन्द्रियरूप बलवान् घोड़ोंवाला रथ, जिसका सारथी बुद्धि वर्णन की गई है, जिसमें मनरूप रासें और पवित्र कर्मोंवाला जीवात्मा जिसका रथी है, वह अपने सदाचार से देश-देशान्तरों को विजय करके अर्थात् सम्पूर्ण दुराचारों के त्यागपूर्वक अमृतपान करता हुआ धर्म की अन्तिम सीमा पर पहुँच कर मुझे प्राप्त हो ॥ तात्पर्य्य यह है कि जिन राजपुरुषों का ब्रह्मचर्य्यरूप तप से शरीर हृष्ट-पुष्ट है और जिनके शरीररूपी रथ का बुद्धिरूप सारथी कुशल है, जो मनरूप रासों से इन्द्रियरूप घोड़ों को ऐसी चतुराई से चलाता है कि उनको वैदिकरूप मार्ग से तनिक भी इधर-उधर नहीं होने देता, वह राजपुरुष निर्विघ्न सम्पूर्ण संसार को विजय करते हुए अर्थात् सांसारिक विषय-वासनाओं को त्याग कर परमात्मा के सम्मुख जाता अर्थात् परमात्मपरायण होता है ॥ या यों कहो कि “अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः”=अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य्य और अपरिग्रह, ये पाँच “यम” और “शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः”=शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान, ये पाँच “नियम”, इन यम-नियमों को धारण करते हुए संयमी बनकर मेरी ओर आओ, मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा ॥३॥