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स्वश्वा॑ य॒शसा या॑तम॒र्वाग्दस्रा॑ नि॒धिं मधु॑मन्तं पिबाथः । वि वां॒ रथो॑ व॒ध्वा॒३॒॑ याद॑मा॒नोऽन्ता॑न्दि॒वो बा॑धते वर्त॒निभ्या॑म् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

svaśvā yaśasā yātam arvāg dasrā nidhim madhumantam pibāthaḥ | vi vāṁ ratho vadhvā yādamāno ntān divo bādhate vartanibhyām ||

पद पाठ

सु॒ऽअश्वा॑ । य॒शसा॑ । आ । या॒त॒म् । अ॒र्वाक् । दस्रा॑ । नि॒ऽधिम् । मधु॑ऽमन्तम् । पि॒बा॒थः॒ । वि । वा॒म् । रथः॑ । व॒ध्वा॑ । याद॑मानः । अन्ता॑न् । दि॒वः । बा॒ध॒ते॒ । व॒र्त॒निऽभ्या॑म् ॥ ७.६९.३

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:69» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:16» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:3


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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दस्रा, यशसा) हे शत्रुओं को दमन करनेवाले यशस्वी राजपुरुषो ! (वां) तुम्हारा (स्वश्वा) बलिष्ठ घोड़ोंवाला (रथः) रथ (मधुमन्तं, निधि) मधुररसवाले देशों की निधियों को (पिबाथः) पान करता हुआ (वध्वा) अपने उद्देश्यरूप लक्ष्य में स्थिर (वर्तनिभ्यां) गतिशील पहियों से (वि, बाधते) सब बाधा=रुकावटों को भले प्रकार दूर करता हुआ (दिवः, अन्तान्) द्युलोक के अन्त तक पहुँच कर (अर्वाक्, यातं) मेरे सम्मुख आवे ॥३॥
भावार्थभाषाः - परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजपुरुषो ! तुम्हारा इन्द्रियरूप बलवान् घोड़ोंवाला रथ, जिसका सारथी बुद्धि वर्णन की गई है, जिसमें मनरूप रासें और पवित्र कर्मोंवाला जीवात्मा जिसका रथी है, वह अपने सदाचार से देश-देशान्तरों को विजय करके अर्थात् सम्पूर्ण दुराचारों के त्यागपूर्वक अमृतपान करता हुआ धर्म की अन्तिम सीमा पर पहुँच कर मुझे प्राप्त हो ॥ तात्पर्य्य यह है कि जिन राजपुरुषों का ब्रह्मचर्य्यरूप तप से शरीर हृष्ट-पुष्ट है और जिनके शरीररूपी रथ का बुद्धिरूप सारथी कुशल है, जो मनरूप रासों से इन्द्रियरूप घोड़ों को ऐसी चतुराई से चलाता है कि उनको वैदिकरूप मार्ग से तनिक भी इधर-उधर नहीं होने देता, वह राजपुरुष निर्विघ्न सम्पूर्ण संसार को विजय करते हुए अर्थात् सांसारिक विषय-वासनाओं को त्याग कर परमात्मा के सम्मुख जाता अर्थात् परमात्मपरायण होता है ॥ या यों कहो कि “अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः”=अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य्य और अपरिग्रह, ये पाँच “यम” और “शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः”=शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा ईश्वरप्रणिधान, ये पाँच “नियम”, इन यम-नियमों को धारण करते हुए संयमी बनकर मेरी ओर आओ, मैं तुम्हारा कल्याण करूँगा ॥३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (दस्रा, यशसा) हे परदमना यशस्विनो राजपुरुषाः, (वाम्) युष्माकं (स्वश्वा) शोभनाश्वयुक्तः (रथः) रथः (मधुमन्तम्, निधिम्) मधुररसयुक्तं निधिं (पिबाथः) पिबन् सन् (वध्वा) स्वलक्ष्ये स्थिरः (वर्त्तनिभ्याम्) गतिशीलैश्चक्रैः (वि, बाधते) बाधाः कुर्वन् (दिवः, अन्तान्) द्युलोकस्य पर्य्यन्तदेशं गत्वा (अर्वाक्, यातम्) मत्सम्मुखमागच्छतु ॥३॥