पदार्थान्वयभाषाः - (सः) वह रथ जो (पप्रथानः) विस्तृत (पञ्च, भूमा, अभि, युक्तः) पाँच भूतों से बना हुआ और (त्रिवन्धुरः) तीन बन्धनों से बन्धा हुआ है, (येन) जिससे (विशः) मनुष्य यात्रा करते हुए (देवयन्तीः, गच्छथः) दिव्य ज्योति की ओर जाते हैं। (अश्विना) हे राजपुरुषों ! (यामं) ऐसे दिव्य रथ को (मनसा, दधाना) मनसे धारण करते हुए (कुत्रचित्) सर्वत्र (यातु) विचरो ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजपुरुषो ! वह शरीररूपी रथ क्षिति, जल, पावक, गगन तथा वायु इन पाँच तत्त्वों=भूतों से बना हुआ जानो और जिसमें सत्त्व, रज, तम इन तीनों गुणों के बन्धन लगे हुए हैं अर्थात् इनसे जगह-जगह पर बन्धा हुआ है, जिससे यात्रा करते हुए मनुष्य उस दिव्य ज्योति परमात्मा को प्राप्त होते हैं, जो मनुष्यजीवन का मुख्य उद्देश्य है। परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे संसार के यात्री लोगो ! तुम इस दिव्य रथ को मन से धारण करते हुए सर्वत्र विचरो अर्थात् मन को दमन करते हुए इस रथ में इन्द्रियरूप बड़े बलवान् घोड़े जुते हुए हैं, जो मनरूप रासों को दृढता से पकड़े विना कदापि वशीभूत नहीं हो सकते, इसलिए तुम मनरूप रासों को दृढ़ता से पकड़ो अर्थात् मन की चञ्चल वृत्तियों को स्थिर करो, ताकि ये इन्द्रियरूप घोड़े इस शरीररूप रथ को विषम मार्ग में ले जाकर किसी गर्त में न गिरायें ॥ इस मन्त्र में परमात्मा ने आध्यात्मिक उपदेश किया है, यही भाव कठ० ३।३ में इस प्रकार वर्णित है कि :−आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु। बुद्धिन्तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ॥ अर्थ–इस आत्मा को रथी जान, शरीर को रथ, बुद्धि को सारथी और मन को रासें जान। फिर आगे कठ० ३।९ में यह वर्णन किया है कि–विज्ञानसारथिर्यस्तु मनःप्रग्रहवान्नरः। सोऽध्वनः पारमाप्नोति तद्विष्णोः परमं पदम्॥ जो पुरुष संस्कृतबुद्धिरूप सारथीवाला तथा संस्कृत मनरूप रासोंवाला है, वह इस संसार से पार होकर व्यापक परमात्मा के सर्वोपरि प्राप्य स्थान को प्राप्त होता है। इसी उच्च भाव का उपदेश उपर्युक्त मन्त्रों में परमात्मा ने किया है। इस उच्चोपदेश को न समझकर सायणादि भाष्यकारों ने इस रथ को अश्विनीकुमारों का लिखा है, जो एक अप्रसिद्ध देवता है और उस रथ का आकाशमार्ग से यजमानों के यज्ञ में आना लिखा है। कहीं-कहीं इसको सूर्य्य का रथ कल्पना करके और उसमें बलवान् घोड़े जोत कर उसकी गति ऐसी वर्णन की है कि वह क्षणमात्र में सहस्रों कोस पहुँच जाता है, इत्यादि कल्पनायें वेदाशय से सर्वथा विरुद्ध हैं, क्योंकि यहाँ पाँच भूत और सत्त्वादि तीनों गुणोंवाले शरीररूप रथ का वर्णन है, जिसमें रथी जीवात्मा स्थित है। इससे स्पष्ट है कि यह रथ किसी देवता वा सूर्यादि का नहीं, किन्तु यह रथ प्रत्येक आत्मा को प्राप्त है। इस भाव को रूपकालङ्कार से परमात्मा ने वर्णन किया है, जो मनुष्यमात्र को शिक्षाप्रद और उपादेय है ॥२॥