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देवता: सूर्यः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: पङ्क्तिः स्वर: पञ्चमः

यद॒द्य सू॑र्य॒ ब्रवोऽना॑गा उ॒द्यन्मि॒त्राय॒ वरु॑णाय स॒त्यम्। व॒यं दे॑व॒त्रादि॑ते स्याम॒ तव॑ प्रि॒यासो॑ अर्यमन्गृ॒णन्तः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad adya sūrya bravo nāgā udyan mitrāya varuṇāya satyam | vayaṁ devatrādite syāma tava priyāso aryaman gṛṇantaḥ ||

पद पाठ

यत्। अ॒द्य। सू॒र्य॒। ब्रवः॑। अना॑गाः। उ॒त्ऽयन्। मि॒त्राय॑। वरु॑णाय। स॒त्यम्। व॒यम्। दे॒व॒ऽत्रा। अ॒दि॒ते॒। स्या॒म॒। तव॑। प्रि॒यासः॑। अ॒र्य॒म॒न्। गृ॒णन्तः॑ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:60» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:5» वर्ग:1» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब मनुष्यों को किसकी प्रार्थना करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (सूर्य) सूर्य्य के समान वर्त्तमान (अदिते) अविनाशी और (अर्यमन्) न्यायकारी जगदीश्वर ! (यत्) जो (अनागाः) अपराध से रहित आप हम लोगों को (उद्यन्) उद्यत कराते हुए सूर्य्य जैसे वैसे (मित्राय) मित्र और (वरुणाय) श्रेष्ठ जन के लिये (सत्यम्) यथार्थ बात को (ब्रवः) कहिये, वैसे हम लोगों के लिये कहिये जिससे आप की (देवत्रा) विद्वानों में (गृणन्तः) स्तुति करते हुए हम लोग (तव) आपके (अद्य) इस समय (प्रियासः) प्रिय (स्याम) होवें ॥१॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! आप लोग सूर्य्य के सदृश प्रकाशक परमात्मा ही की प्रार्थना करो, हे परब्रह्मन् ! आप हम लोगों के आत्माओं में अन्तर्य्यामी के स्वरूप से सत्य-सत्य उपदेश करिये, जिससे आपकी आज्ञा में वर्त्ताव कर के हम लोग आप के प्रिय होवें ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ मनुष्यैः कः प्रार्थनीय इत्याह ॥

अन्वय:

हे सूर्यादितेऽर्यमन् जगदीश्वर ! यद्योऽनागास्त्वमस्मानुद्यन् सूर्य इव यथा मित्राय वरुणाय सत्यं ब्रवस्तथाऽस्मभ्यं ब्रूहि यतस्स्त्वां देवत्रा गृणन्तो वयं तवाद्य प्रियासस्स्याम ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यः (अद्य) (सूर्य) सूर्य इव वर्त्तमान (ब्रवः) वद (अनागाः) अनपराधः (उद्यन्) उदयन् (मित्राय) सख्ये (वरुणाय) श्रेष्ठाय (सत्यम्) यथार्थम् (वयम्) (देवत्रा) देवेषु विद्वत्सु (अदिते) अविनाशिन् (स्याम) (तव) (प्रियासः) प्रियाः (अर्यमन्) न्यायकारिन् (गृणन्तः) स्तुवन्तः ॥१॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! भवन्तं सूर्यवत्प्रकाशकं परमात्मानमेवं प्रार्थयन्तु, हे परब्रह्मन् ! भवान्नस्माकमात्मस्वन्तर्यामिरूपेण सत्यं सत्यमुपदिशतु येन तवाज्ञायां वर्तित्वा वयं भवत्प्रिया भवेमेति ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात सूर्य इत्यादी दृष्टांतांनी विद्वानांच्या गुण व कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तांच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही सूर्याप्रमाणे प्रकाशक असलेल्या परमात्म्याची प्रार्थना करा. हे परब्रह्मा ! तू आमच्या आत्म्यामध्ये अंतर्यामी स्वरूपाने खराखरा उपदेश कर. ज्यामुळे तुझ्या आज्ञेत वागून आम्ही तुझे प्रिय बनावे. ॥ १ ॥