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देवता: आपः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

श॒तप॑वित्राः स्व॒धया॒ मद॑न्तीर्दे॒वीर्दे॒वाना॒मपि॑ यन्ति॒ पाथः॑। ता इन्द्र॑स्य॒ न मि॑नन्ति व्र॒तानि॒ सिन्धु॑भ्यो ह॒व्यं घृ॒तव॑ज्जुहोत ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

śatapavitrāḥ svadhayā madantīr devīr devānām api yanti pāthaḥ | tā indrasya na minanti vratāni sindhubhyo havyaṁ ghṛtavaj juhota ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

श॒तऽप॑वित्राः। स्व॒धया॑। मद॑न्तीः। दे॒वीः। दे॒वाना॑म्। अपि॑। य॒न्ति॒। पाथः॑। ताः। इन्द्र॑स्य। न। मि॒न॒न्ति॒। व्र॒तानि॑। सिन्धु॑ऽभ्यः। ह॒व्यम्। घृ॒तऽव॑त्। जु॒हो॒त॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:47» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:4» वर्ग:14» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:3» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर स्त्री-पुरुष कैसे होकर विवाह करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् मनुष्यो ! जो (शतपवित्राः) सौ उपायों से शुद्ध (मदन्तीः) आनन्द करती हुईं (देवीः) विदुषी पण्डित ब्रह्मचारिणी कन्या (देवानाम्) विद्वानों के (स्वधया) अन्नादि पदार्थ से (पाथः) अन्नादि ऐश्वर्य को (अपि, यन्ति) प्राप्त होती हैं (ताः) वे (इन्द्रस्य) समग्र ऐश्वर्यवान् परमात्मा के (व्रतानि) व्रतों को (न) नहीं (मिनन्ति) नष्ट करती हैं जैसे (सिन्धुभ्यः) नदियों के समान (घृतवत्) बहुत घी से युक्त (हव्यम्) देने योग्य वस्तु बनाकर वे होमती हैं, वैसे इनको तुम (जुहोत) ग्रहण करो ॥३॥
भावार्थभाषाः - जो युवति कन्या, नदियाँ समुद्रों को जैसे, वैसे हृदय के प्यारे पतियों को पाकर छोड़ती नहीं हैं, वैसे ही तुम सब मनुष्य एक-दूसरे के संयोग से सर्वदा आनन्द करो ॥३॥
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हरिशरण सिद्धान्तालंकार

देवमार्ग

पदार्थान्वयभाषाः - पदार्थ - (शत-पवित्रा:) = सैकड़ों रश्मियों से पवित्र (देवी:) = दिव्य गुण-युक्त जलांश (स्वधया) = अक्षांश से (मदन्तीः) = प्रजाओं को तृप्त करते हुए (देवानां) = सूर्य-रश्मियों के (पाथः अपियन्ति) = मार्ग को प्राप्त करते हैं। ऐसे ही (शत-पवित्रा:) = सैकड़ों उत्तम संस्कारों से पवित्राचरणवाली (देवी:) = उत्तम स्त्रियाँ (स्वधया) = अन्नादि से (मदन्तीः) = आनन्द लाभ करती हुईं (देवानां) = विद्वान् पुरुषों के (पाथः) = पालन योग्य ऐश्वर्य को (अपियन्ति) = प्राप्त करती हैं। (ताः) = वे (इन्द्रस्य) = ऐश्वर्य युक्त पति के (व्रतानि) = कर्मों को (न मिनन्ति) = नाश नहीं करतीं। (सिन्धुभ्यः) = पुरुषों को सम्बन्धों से बाँधनेवाली उन स्त्रियों के भी (घृतवत्) = घृत-युक्त (हव्यं) = जलों या खाद्य अन्नों का उत्पादक अंश 'इन्द्रपान' अर्थात् जीवों के उपभोग-योग्य इस अंश को रश्मियें उत्पन्न करती हैं।
भावार्थभाषाः - भावार्थ- उत्तम जन सूर्य की किरणों द्वारा शोधित जल व अन्न पान द्वारा तृप्त होकर देवमार्ग के गामी होते हैं। विदुषी स्त्रियाँ भी ऐसे अन्न-जल का पान करके उत्तम संस्कारोंवाली होकर अपने व्रतों सुकर्मों द्वारा यज्ञशील बनती है। वे भी देवमार्ग की गामिनी होती हैं।
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषाः कीदृशा भूत्वा विवाहं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो नरा ! याः शतपवित्रा मदन्तीर्देवीर्विदुष्यो देवानां स्वधया पाथोऽपि यन्ति ता इन्द्रस्य व्रतानि न मिनन्ति यथा सिन्धुभ्यो घृतवद्धव्यं निर्माय ता जुह्वति तथैता यूयं जुहोत आदद्यात ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (शतपवित्राः) शतैरुपायैर्ये शुद्धाः (स्वधया) अन्नाद्येन (मदन्तीः) आनन्दतीः (देवीः) विदुष्यो ब्रह्मचारिण्यः (देवानाम्) विदुषाम् (अपि) (यन्ति) प्राप्नुवन्ति (पाथः) अन्नाद्यैश्वर्यम् (ताः) (इन्द्रस्य) समग्रैश्वर्यस्य परमात्मनः (न) निषेधे (मिनन्ति) हिंसन्ति (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि कर्माणि (सिन्धुभ्यः) नदीभ्य इव (हव्यम्) होतुं दातुमर्हम् (घृतवत्) बहुघृतयुक्तम् (जुहोत) आदद्यात ॥३॥
भावार्थभाषाः - या युवतयः कन्याः सिन्धवः समुद्रानिव हृद्यान् पतीन् प्राप्य न व्यभिचरन्ति तथैव यूयं सर्वे मनुष्याः परस्परेषां संयोगेन सर्वदाऽऽनन्दत ॥३॥
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डॉ. तुलसी राम

पदार्थान्वयभाषाः - The holy and ecstatic waters, hundred ways pure and flowing with their innate inspiring vitality, move on and converge to the divinities, centre yajna of the cosmos. They do not violate the divine laws of Indra, lord of existence. O men and women, offer oblations with ghrta for augmenting the rivers and the seas.
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - नद्या जशा समुद्राला मिळतात तशा ज्या युवती हृद्य पतींना प्राप्त करून त्यांचा त्याग करीत नाहीत तसे तुम्ही सर्व माणसे परस्परांच्या संयोगाने सदैव आनंदित राहा. ॥ ३ ॥