मो षु त्वा॑ वा॒घत॑श्च॒नारे अ॒स्मन्नि री॑रमन्। आ॒रात्ता॑च्चित्सध॒मादं॑ न॒ आ ग॑ही॒ह वा॒ सन्नुप॑ श्रुधि ॥१॥
mo ṣu tvā vāghataś canāre asman ni rīraman | ārāttāc cit sadhamādaṁ na ā gahīha vā sann upa śrudhi ||
मो इति॑। सु। त्वा॒। वा॒घतः॑। च॒न। आ॒रे। अ॒स्मत्। नि। री॒र॒म॒न्। आ॒रात्ता॑त्। चि॒त्। स॒ध॒ऽमाद॑म्। नः॒। आ। ग॒हि॒। इ॒ह। वा॒। सन्। उप॑। श्रु॒धि॒ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सत्ताईस ऋचावाले बत्तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में कौन दूर और समीप में रक्षा करने योग्य होते हैं, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ के दूरे समीपे च रक्षणीया इत्याह ॥
हे विद्वन् राजन् ! वाघतस्तवारे चनाप्यस्मदारे मो सुरीरमन्। सततं तवारे सन्तस्त्वा रमयन्तु। आरात्ताच्चित्वं नः सधमादमा गहीह वा प्रसन्नः सन्नस्माकं वचांसि न्युप श्रुधि ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, मेधावी, धन, विद्येची कामना करणारे, रक्षक, राजा, ईश्वर, जीव, धनसंचय, ईश्वर व नौकानयन करणाऱ्यांच्या गुण कर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.