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प्र वो॑ म॒हे म॑हि॒वृधे॑ भरध्वं॒ प्रचे॑तसे॒ प्र सु॑म॒तिं कृ॑णुध्वम्। विशः॑ पू॒र्वीः प्र च॑रा चर्षणि॒प्राः ॥१०॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

pra vo mahe mahivṛdhe bharadhvam pracetase pra sumatiṁ kṛṇudhvam | viśaḥ pūrvīḥ pra carā carṣaṇiprāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

प्र। वः॒। म॒हे। म॒हि॒ऽवृधे॑। भ॒र॒ध्व॒म्। प्रऽचे॑तसे। प्र। सु॒ऽम॒तिम्। कृ॒णु॒ध्व॒म्। विशः॑। पू॒र्वीः। प्र। च॒र॒। च॒र्ष॒णि॒ऽप्राः ॥१०॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:31» मन्त्र:10 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:16» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजप्रजाजन परस्पर क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वानो ! जैसे हम लोग (वः) तम्हारे लिये उत्तम पदार्थों को दें, वैसे तुम हम लोगों के (महे) महान् व्यवहार के लिये (महिवृधे) तथा बड़ों के बढ़ने और (प्रचेतसे) उत्तम प्रज्ञा रखनेवाले के लिये (सुमतिम्) सुन्दर मति को (प्र, भरध्वम्) उत्तमता से धारण करो हम लोगों को (पूर्वीः) प्राचीन पिता पितामहादिकों से प्राप्त (विशः) प्रजाजनों को (प्र, कृणुध्वम्) विद्वान् अच्छे प्रकार करो (चर्षणिप्राः) जो मनुष्यों को व्याप्त होता वह राजा आप न्याय में (प्र, चर) प्रचार करो ॥१०॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन तुम लोगों के लिये शुभगुण और पुष्कल ऐश्वर्य विधान करते हैं, वैसे तुम इनके लिये श्रेष्ठ नीति धारण करो ॥१०॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राजप्रजाजनाः परस्परं किं कुर्य्युरित्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यथा वयं वो युष्मभ्यमुत्तमान् पदार्थान् प्रयच्छेम तथा यूयं नो महे महिवृधे प्रचेतसे सुमतिं प्र भरध्वमस्मान् पूर्वीर्विशो विदुषीः प्र कृणुध्वम्। चर्षणिप्रास्त्वं राजँस्त्वं न्याये प्र चर ॥१०॥

पदार्थान्वयभाषाः - (प्र) (वः) युष्मभ्यम् (महे) महते (महिवृधे) महतां वर्धकाय (भरध्वम्) (प्रचेतसे) प्रकृष्टं चेतः प्रज्ञा यस्य तस्मै (प्र) (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (कृणुध्वम्) (विशः) प्रजाः (पूर्वीः) प्राचीनाः पितापितामहादिभ्यः प्राप्ताः (प्र) (चर) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (चर्षणिप्राः) यश्चर्षणीन् मनुष्यान् प्राति व्याप्नोति सः ॥१०॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यथा विद्वांसो युष्मदर्थं शुभान् गुणान् पुष्कलमैश्वर्यं विदधति तथा यूयमेतदर्थं श्रेष्ठां नीतिं धत्त ॥१०॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान लोक तुम्हाला शुभ गुण व ऐश्वर्य देतात तसे तुम्ही त्यांच्याबाबत श्रेष्ठ नीती धारण करा. ॥ १० ॥