प्र व॒ इन्द्रा॑य॒ माद॑नं॒ हर्य॑श्वाय गायत। सखा॑यः सोम॒पाव्ने॑ ॥१॥
pra va indrāya mādanaṁ haryaśvāya gāyata | sakhāyaḥ somapāvne ||
प्र। वः॒। इन्द्रा॑य। माद॑नम्। हरि॑ऽअश्वाय। गा॒य॒त॒। सखा॑यः। सो॒म॒ऽपाव्ने॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब बारह ऋचावाले इकतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मित्रों को मित्र के लिये क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ सखिभिर्मित्राय किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
हे सखायो ! वो युष्माकं हर्यश्वाय सोमपाव्न इन्द्राय मादनं यूयं प्रगायत ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, विद्वान व राजा यांच्या कामाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.