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आ नो॑ देव॒ शव॑सा याहि शुष्मि॒न्भवा॑ वृ॒ध इ॑न्द्र रा॒यो अ॒स्य। म॒हे नृ॒म्णाय॑ नृपते सुवज्र॒ महि॑ क्ष॒त्राय॒ पौंस्या॑य शूर ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā no deva śavasā yāhi śuṣmin bhavā vṛdha indra rāyo asya | mahe nṛmṇāya nṛpate suvajra mahi kṣatrāya pauṁsyāya śūra ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। नः॒। दे॒व॒। शव॑सा। या॒हि॒। शु॒ष्मि॒न्। भव॑। वृ॒धः। इ॒न्द्र॒। रा॒यः। अ॒स्य। म॒हे। नृ॒म्णाय॑। नृ॒ऽप॒ते॒। सु॒ऽव॒ज्र॒। महि॑। क्ष॒त्राय॑। पौंस्या॑य। शू॒र॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:30» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:14» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब पाँच ऋचावाले तीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में कौन राजा प्रशंसा करने योग्य होता है, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (शूर) निर्भय (सुवज्र) उत्तम शस्त्र और अस्त्रों के चलाने में कुशल (नृपते) मनुष्यों की पालना करनेवाले (शुष्मिन्) प्रशंसित बलयुक्त (देव) विद्या गुण सम्पन्न (इन्द्र) परम ऐश्वर्यवान् राजन् ! आप (शवसा) उत्तम बल से (नः) हम लोगों को (आ, याहि) प्राप्त होओ (अस्य) इस (रायः) धन वा राज्य की (वृधः) वृद्धिसम्बन्धी (भव) हूजिये और (महे) महान् (नृम्णाय) धन के तथा (महि) महान् (क्षत्राय) राज्य के और (पौंस्याय) पुरुष विषयक बल के लिये प्रयत्न करो ॥१॥
भावार्थभाषाः - वही राजा श्रेष्ठ होता है, जो राज्य की रक्षा में निरन्तर उत्तम यत्न करे और धनविद्या की वृद्धि से प्रजा को अच्छे प्रकार पुष्टि देकर सुखी करे ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ को राजा प्रशंसनीयो भवतीत्याह ॥

अन्वय:

हे शूर सुवज्र नृपते शुष्मिन् देवेन्द्र ! त्वं शवसा नोऽस्मानायाह्यस्य रायो वृधो भव महे नृम्णाय महि क्षत्राय पौंस्याय च प्रयतस्व ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (नः) अस्मान् (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (शवसा) उत्तमेन बलेन (याहि) प्राप्नुहि (शुष्मिन्) प्रशंसितबलयुक्त (भव) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वृधः) वर्धनस्य (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त (रायः) धनस्य राज्यस्य वा (अस्य) (महे) महते (नृम्णाय) धनाय (नृपते) नृणां पालक (सुवज्र) शोभनशस्त्रास्त्रप्रयोगकुशल (महि) महते (क्षत्राय) राष्ट्राय (पौंस्याय) पुंसु भवाय बलाय (शूर) निर्भय ॥१॥
भावार्थभाषाः - स एव राजा श्रेष्ठो भवति यो राष्ट्ररक्षणे सततं प्रयतेत धनविद्यावृद्ध्या प्रजाः सम्पोष्य सुखयेत् ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात इंद्र, राजा, प्रजा, भृत्य व उपदेशकाच्या कामाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जो राज्याचे रक्षण करण्याचा निरंतर उत्तम प्रयत्न करतो व धनविद्येची वृद्धी करून प्रजेला चांगल्या प्रकारे पुष्ट करून सुखी करतो तोच राजा श्रेष्ठ असतो. ॥ १ ॥