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सु॒सं॒दृक्ते॑ स्वनीक॒ प्रती॑कं॒ वि यद्रु॒क्मो न रोच॑स उपा॒के। दि॒वो न ते॑ तन्य॒तुरे॑ति॒ शुष्म॑श्चि॒त्रो न सूरः॒ प्रति॑ चक्षि भा॒नुम् ॥६॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

susaṁdṛk te svanīka pratīkaṁ vi yad rukmo na rocasa upāke | divo na te tanyatur eti śuṣmaś citro na sūraḥ prati cakṣi bhānum ||

पद पाठ

सु॒ऽस॒न्दृक्। ते॒। सु॒ऽअ॒नी॒क॒। प्रती॑कम्। वि। यत्। रु॒क्मः। न। रोच॑से। उ॒पा॒के। दि॒वः। न। ते॒। त॒न्य॒तुः। ए॒ति॒। शुष्मः॑। चि॒त्रः। न। सूरः॑। प्रति॑। च॒क्षि॒ भा॒नुम् ॥६॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:3» मन्त्र:6 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:4» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:6


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विद्युत् अग्नि कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (स्वनीक) सुन्दर सेनावाले सेनापते ! जिस (ते) आपका (यत्) जो (प्रतीकम्) विजय का निश्चय करानेवाले (रुक्मः) प्रकाशमान सूर्य्य के (न) तुल्य है जो (उपाके) समीप में (वि, रोचसे) विशेष कर रुचिकारक होते हो। जिस (ते) तुम्हारा (दिवः, न) सूर्य्य के तुल्य (सुसन्दृक्) अच्छे प्रकार देखने का साधन (तन्यतुः) विद्युत् विजय प्रतितिकारक नियम को (एति) प्राप्त होता है, उसका (शुष्मः) बलयुक्त (चित्रः) आश्चर्यस्वरूप (सूरः) सूर्य (न) जैसे, वैसे मैं (भानुम्) प्रकाशयुक्त आपके (प्रति) (चक्षि) कहूँ ॥६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे राजन् ! यदि आप विद्युद् विद्या को जानें तो सूर्य्य के तुल्य सुन्दर सेनादिकों से प्रकाशित हुए सर्वत्र विजय, कीर्ति और राजाओं में सुशोभित होवें ॥६॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सा विद्युत्कीदृशीत्याह ॥

अन्वय:

हे स्वनीक ! यस्य ते यत्प्रतीकं रुक्मो नेवास्ति ये उपाके वि रोचसे यस्य ते दिवो न सुसन्दृक् तन्यतुः प्रतीकमेति तस्य शुष्मश्चित्रः सूरो नेवाहं भानुं त्वा प्रति चक्षि ॥६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सुसन्दृक्) सुष्ठु पश्यति यया सा (ते) तव (स्वनीक) शोभनमनीकं सैन्यं यस्य तत्सम्बुद्धौ (प्रतीकम्) विजयप्रतीतिकरम् (वि) (यत्) (रुक्मः) रोचमानः सूर्य्यः (न) इव (रोचसे) (उपाके) समीपे (दिवः) सूर्य्यस्य (न) इव (ते) तव (तन्यतुः) विद्युत् (एति) गच्छति (शुष्मः) बलयुक्तः (चित्रः) अद्भुतः (नः) (सूरः) सूर्य्यः (प्रति) (चक्षि) वदेयम् (भानुम्) प्रकाशयुक्तम् ॥६॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । हे राजन् ! यदि भवान् विद्युद्विद्यां प्राप्नुयात्तर्हि सूर्य्यवत्सुसेनादिभिः प्रकाशितः सन् सर्वत्र विजयकीर्त्ती राजसु राजेत ॥६॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! जर तू विद्युत विद्या जाणलीस तर सूर्याप्रमाणे उत्कृष्ट सेनेमुळे प्रसिद्ध होऊन सर्वत्र विजय व कीर्ती प्राप्त करून राजे लोकांमध्ये सुशोभित होशील. ॥ ६ ॥