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वो॒चेमेदिन्द्रं॑ म॒घवा॑नमेनं म॒हो रा॒यो राध॑सो॒ यद्दद॑न्नः। यो अर्च॑तो॒ ब्रह्म॑कृति॒मवि॑ष्ठो यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

vocemed indram maghavānam enam maho rāyo rādhaso yad dadan naḥ | yo arcato brahmakṛtim aviṣṭho yūyam pāta svastibhiḥ sadā naḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

वो॒चेम॑। इत्। इन्द्र॑म्। म॒घऽवा॑नम्। ए॒न॒म्। म॒हः। रा॒यः। राध॑सः। यत्। दद॑त्। नः॒। यः। अर्च॑तः। ब्रह्म॑ऽकृतिम्। अवि॑ष्ठः। यू॒यम्। पा॒त॒। स्व॒स्तिऽभिः॑। सदा॑। नः॒ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:29» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:13» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन यहाँ संसार में सब की रक्षा करनेवाले होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे विद्वान् जनो ! (यूयम्) विद्यावृद्ध तुम (स्वस्तिभिः) उत्तम शिक्षाओं से (नः) हम लोगों की (सदा) सदा (पात) रक्षा करो। हे परीक्षा करनेवाले ! (यः) जो (अविष्ठः) अतीव रक्षा करनेवाला (ब्रह्मकृतिम्) वेदोक्त सत्य क्रिया को (नः) हम लोगों के लिये (ददत्) देवे वा (यत्) जिसको (अर्चतः) सत्कार किये हुए जन का (महः) महान् (राधसः) शरीर और आत्मा के बल का बढ़ानेवाला (रायः) विद्यारूपी धन का उत्तम प्रकार से देनेवाले (एनम्) इस (मघवानम्) प्रशस्त विद्या धनयुक्त (इन्द्रम्, इत्) अविद्यान्धकार विदीर्ण करनेवाले अध्यापक की हम लोग (वोचेम) प्रशंसा कहें, उसकी तुम भी प्रशंसा करो ॥५॥
भावार्थभाषाः - जो जन नाश न होने वाले सर्वत्र सत्कार के हेतु विद्याधन के देनेवाले हैं, वे ही सबके यथावत् पालनेवाले हैं ॥५॥ इस सूक्त में इन्द्र, सोमपान, अध्यापक, अध्येता, परीक्षक और विद्या देनेवालों के गुण और कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह उनतीसवाँ सूक्त और तेरहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः केऽत्र सर्वेषां रक्षकाः सन्तीत्याह ॥

अन्वय:

हे विद्वांसो ! यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा पात हे परीक्षक ! योऽविष्ठो ब्रह्मकृतिं नो ददद्यद्यमर्चतो महो राधसो रायः प्रदातारमेनं मघवानमिन्द्रम् [इत्] वयं वोचेम तं यूयमपि प्रशंसत ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (वोचेम) वदेम (इत्) इव (इन्द्रम्) अविद्यान्धकारविदारकमध्यापकम् (मघवानम्) प्रशस्तविद्याधनवन्तम् (एनम्) (महः) महतः (रायः) विद्याधनस्य (राधसः) शरीरात्मबलवर्धकस्य (यत्) यम् (ददत्) दद्यात् (नः) अस्मभ्यम् (यः) (अर्चतः) सत्कृतस्य (ब्रह्मकृतिम्) वेदोक्तां सत्यक्रियाम् (अविष्ठः) अतिशयेन रक्षकः (यूयम्) विद्यावृद्धाः (पात) (स्वस्तिभिः) सुशिक्षाभिः (सदा) (नः) (अस्मान्) ॥५॥
भावार्थभाषाः - येऽक्षयस्य सर्वत्र सत्कारहेतोर्विद्याधनस्य दातारः सन्ति त एव सर्वेषां यथावत्पालका वर्त्तन्त इति ॥५॥ अत्रेन्द्रसोमपानाध्यापकाऽध्येतृपरीक्षकविद्यादातृगुणकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इत्येकोनत्रिंशत्तमं सूक्तं त्रयोदशो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - जे लोक सर्वत्र सत्कार करण्याचा हेतू असलेले अक्षय विद्या धन देतात तेच सर्वांचे पालन करतात. ॥ ५ ॥