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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

ए॒वा तमा॑हुरु॒त शृ॑ण्व॒ इन्द्र॒ एको॑ विभ॒क्ता त॒रणि॑र्म॒घाना॑म्। मि॒थ॒स्तुर॑ ऊ॒तयो॒ यस्य॑ पू॒र्वीर॒स्मे भ॒द्राणि॑ सश्चत प्रि॒याणि॑ ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

evā tam āhur uta śṛṇva indra eko vibhaktā taraṇir maghānām | mithastura ūtayo yasya pūrvīr asme bhadrāṇi saścata priyāṇi ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ए॒व। तम्। आ॒हुः॒। उ॒त। शृ॒ण्वे॒। इन्द्रः॑। एकः॑। वि॒ऽभ॒क्ता। त॒रणिः॑। म॒घाना॑म्। मि॒थःऽतुरः॑। ऊ॒तयः॑। यस्य॑। पू॒र्वीः। अ॒स्मे इति॑। भ॒द्राणि॑। स॒श्च॒त॒। प्रि॒याणि॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:26» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:10» मन्त्र:4 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कौन इस जगत् में राजा होने योग्य होता है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यस्य) जिसकी (पूर्वीः) पुरातन (मिथस्तुरः) परस्पर शीघ्रता करती हुई (ऊतयः) रक्षायें (अस्मे) हम लोगों में (प्रियाणि) मनोहर (भद्राणि) कल्याण करनेवाले काम (सश्चत) सम्बन्ध करें जो (एकः) एक (मघानाम्) धनों के (विभक्ता) सत्य असत्य का विभाग करने वा (तरणिः) तारनेवाला (इन्द्रः) परमैश्वर्य्ययुक्त जीव धर्म की सेवा करता है (तम्, एव) उसी को आप्त शिष्ट धर्मशील सज्जन धर्मात्मा (आहुः) कहते हैं (उत) निश्चय उसी का उपदेश मैं (शृण्वे) सुनता हूँ ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जिसकी प्रशंसा आप्त विद्वान् जन करें वा जिसके धर्मयुक्त कर्मों को समस्त प्रजा प्रीति से चाहे, जो सत्य झूठ को यथावत् अलग कर न्याय करे, वही हमारा राजा हो ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः कोऽत्र राजा भवितुं योग्यो भवतीत्याह ॥

अन्वय:

यस्य पूर्वीर्मिथस्तुर ऊतयोऽस्मे प्रियाणि भद्राणि सश्चत य एको मघानां विभक्ता तरणिरिन्द्रो जीवो धर्मं सेवते तमेवाऽऽप्ता धार्मिकमाहुरुत तस्यैवोपदेशमहं शृण्वे ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (तम्) (आहुः) कथयन्ति (उत) अपि (शृण्वे) (इन्द्रः) परमैश्वर्ययुक्तः (एकः) असहायः (विभक्ता) सत्याऽसत्ययोः विभाजकः (तरणिः) तारयिता (मघानाम्) धनानाम् (मिथस्तुरः) या मिथस्त्वरयन्ति ताः (ऊतयः) रक्षाः (यस्य) (पूर्वीः) पुरातन्यः (अस्मे) अस्मासु (भद्राणि) कल्याणकराणि कर्माणि (सश्चत) सेवन्तां सम्बध्नन्तु (प्रियाणि) कमनीयानि ॥४॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यस्य प्रशंसामाप्ता विद्वांसः कुर्य्युर्यस्य धर्म्याणि कर्माणि सर्वाः प्रजा इच्छेयुर्यो हि सत्यानृतयोर्यथावद्विभागं कृत्वा न्यायं कुर्य्यात् स एवाऽस्माकं राजा भवतु ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! ज्याची प्रशंसा विद्वान लोक करतात किंवा ज्याच्या धर्मयुक्त कर्मांना संपूर्ण प्रजा प्रेमाने इच्छिते. जो सत्य असत्याला यथायोग्यरीत्या पृथक करून न्याय करतो तोच आमचा राजा असावा. ॥ ४ ॥