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नि दु॒र्ग इ॑न्द्र श्नथिह्य॒मित्रा॑न॒भि ये नो॒ मर्ता॑सो अ॒मन्ति॑। आ॒रे तं शंसं॑ कृणुहि निनि॒त्सोरा नो॑ भर सं॒भर॑णं॒ वसू॑नाम् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ni durga indra śnathihy amitrām̐ abhi ye no martāso amanti | āre taṁ śaṁsaṁ kṛṇuhi ninitsor ā no bhara sambharaṇaṁ vasūnām ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नि। दुः॒ऽगे। इ॒न्द्र॒। श्न॒थि॒हि॒। अ॒मित्रा॑न्। अ॒भि। ये। नः॒। मर्ता॑सः। अ॒मन्ति॑। आ॒रे। तम्। शंस॑म्। कृ॒णु॒हि॒। नि॒नि॒त्सोः। आ। नः॒। भ॒र॒। स॒म्ऽभर॑णम्। वसू॑नाम् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:25» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:9» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर राजा को कौन दण्ड देने योग्य और निवारने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) दुष्ट शत्रुओं के निवारनेवाला राजा ! (ये) जो (मर्त्तासः) मनुष्य (नः) हम लोगों को (दुर्गे) शत्रुओं को दुःख से पहुँचने योग्य परकोटा में (अमन्ति) रोगों को पहुँचाते हैं उन (अमित्रान्) सब के साथ द्रोहयुक्त रहने वालों को आप (नि, अभि, श्नथिहि) निरन्तर सब ओर से मारो, हम लोगों से (आरे) दूर उनको फेंको (निनित्सोः) और निन्दा की इच्छा करनेवाले से हम लोगों को दूर कर (नः) हम लोगों के (तम्) उस (शंसम्) प्रशंसनीय विजय को (कृणुहि) कीजिये तथा (वसूनाम्) द्रव्यादि पदार्थों के (संभरणम्) अच्छे प्रकार पोषण को (आ, भर) सब ओर से स्थापित कीजिये ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जो धूर्त मनुष्य ब्रह्मचर्य आदि के निवारण से मनुष्यों को रोगी करते हैं, उनको काराघर में बाँधो और जो अपनी प्रशंसा के लिये सब की निन्दा करते हैं, उनको समझा कर उत्तम प्रजाजनों से अलग रक्खो, ऐसे करने से आपकी बड़ी प्रशंसा होगी ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुना राज्ञा के दण्डनीया निवारणीयाश्चेत्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र ! ये मर्त्तासो नो दुर्गेऽमन्ति तानमित्राँस्त्वं न्यभि श्नथिह्यस्मदारे प्रक्षिप निनित्सोरस्मानारे कृत्वा नस्तं शंसं कृणुहि वसूनां संभरणमाभर ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (नि) नितराम् (दुर्गे) शत्रुभिर्दुःखेन गन्तव्ये प्रकोटे (इन्द्र) दुष्टशत्रुविदारक (श्नथिहि) हिंसय (अमित्रान्) सर्वैः सह द्रोहयुक्तान् (अभि) (ये) (नः) अस्मान् (मर्त्तासः) मनुष्याः (अमन्ति) प्रापयन्ति रोगान् (आरे) दूरे (तम्) (शंसम्) प्रशंसनीयं विजयम् (कृणुहि) (निनित्सोः) निन्दितुमिच्छोः (आ) (नः) अस्मान् (भर) (सम्भरणम्) सम्यग् धारणं पोषणं वा (वसूनाम्) द्रव्याणाम् ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! ये धूर्त्ता मनुष्या ब्रह्मचर्यादिनिवारणेन मनुष्यान् रुग्णान् कुर्वन्ति तान् कारागृहे बध्नीहि ये च स्वप्रशंसायै सर्वान्निन्दन्ति तान् सुशिक्ष्य भद्रिकायाः प्रजाया दूरे रक्षैव कृते भवतो महती प्रशंसा भविष्यति ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे राजा ! जी धूर्त माणसे ब्रह्मचर्य नष्ट करवून माणसांना रोगी करतात त्यांना कारागृहात टाक. जे आपल्या प्रशंसेसाठी सर्वांची निंदा करतात त्यांना समजावून सांगून उत्तम प्रजाजनांपासून वेगळे ठेव. असे करण्याने तुझी प्रशंसा होईल. ॥ २ ॥