नि दु॒र्ग इ॑न्द्र श्नथिह्य॒मित्रा॑न॒भि ये नो॒ मर्ता॑सो अ॒मन्ति॑। आ॒रे तं शंसं॑ कृणुहि निनि॒त्सोरा नो॑ भर सं॒भर॑णं॒ वसू॑नाम् ॥२॥
ni durga indra śnathihy amitrām̐ abhi ye no martāso amanti | āre taṁ śaṁsaṁ kṛṇuhi ninitsor ā no bhara sambharaṇaṁ vasūnām ||
नि। दुः॒ऽगे। इ॒न्द्र॒। श्न॒थि॒हि॒। अ॒मित्रा॑न्। अ॒भि। ये। नः॒। मर्ता॑सः। अ॒मन्ति॑। आ॒रे। तम्। शंस॑म्। कृ॒णु॒हि॒। नि॒नि॒त्सोः। आ। नः॒। भ॒र॒। स॒म्ऽभर॑णम्। वसू॑नाम् ॥२॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
फिर राजा को कौन दण्ड देने योग्य और निवारने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
पुना राज्ञा के दण्डनीया निवारणीयाश्चेत्याह ॥
हे इन्द्र ! ये मर्त्तासो नो दुर्गेऽमन्ति तानमित्राँस्त्वं न्यभि श्नथिह्यस्मदारे प्रक्षिप निनित्सोरस्मानारे कृत्वा नस्तं शंसं कृणुहि वसूनां संभरणमाभर ॥२॥