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अया॑मि॒ घोष॑ इन्द्र दे॒वजा॑मिरिर॒ज्यन्त॒ यच्छु॒रुधो॒ विवा॑चि। न॒हि स्वमायु॑श्चिकि॒ते जने॑षु॒ तानीदंहां॒स्यति॑ पर्ष्य॒स्मान् ॥२॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ayāmi ghoṣa indra devajāmir irajyanta yac churudho vivāci | nahi svam āyuś cikite janeṣu tānīd aṁhāṁsy ati parṣy asmān ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अया॑मि। घोषः॑। इ॒न्द्र॒। दे॒वऽजा॑मिः। इ॒र॒ज्यन्त॑। यत्। शु॒रुधः॑। विऽवा॑चि। न॒हि। स्वम्। आयुः॑। चि॒कि॒ते। जने॑षु। तानि॑। इत्। अंहां॑सि। अति॑। प॒र्षि॒। अ॒स्मान् ॥२॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:23» मन्त्र:2 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:7» मन्त्र:2 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:2


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह राजा और मन्त्री जन परस्पर कैसे वर्तें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्य के देनेवाले ! (यत्) जो (शुरुधः) शीघ्र रूंधनेवाले (विवाचि) नाना प्रकार की विद्याओं में जो प्रवृत्त वाणी उसमें (इरज्यन्त) प्राप्त होते हैं वा जिनके साथ (देवजामिः) विद्वानों के सङ्ग रहनेवाली (घोषः) अच्छी वक्तृता से युक्त वाणी प्रवृत्त हो वा जो (जनेषु) मनुष्यों में (स्वम्) अपनी (आयुः) उमर को (चिकिते) जानता है वा (तानि) उन (अंहांसि) अधर्मयुक्त कामों को दूर (अति, पर्षि) आप अति पार पहुँचाते वा (अस्मान्) हम लोगों की अच्छे प्रकार रक्षा करता है उसकी मैं (अयामि) रक्षा करता हूँ, ये समस्त हम लोग पुरुषार्थ से पराजित (इत्, नहि) कभी न हों ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् जन धर्मयुक्त व्यवहार में वर्तें, वैसे तुम भी वर्तो, ब्रह्मचर्य्य आदि से अपनी आयु को बढ़ाओ ॥२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स राजाऽमात्याश्चाऽन्योऽन्यं कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

अन्वय:

हे इन्द्र यद्ये शुरुधो विवाचीरज्यन्त यैः सह देवजामिर्घोषः प्रवर्तेत यो जनेषु स्वमायुश्चिकिते तान्यंहांसि दूरेऽति पर्ष्यस्माँश्च सुरक्षति तमहमयामि एते सर्वे वयं पुरुषार्थेन कदाचित् पराजिता इन्नहि भवेम ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अयामि) प्राप्नोति (घोषः) सुवक्तृत्वयुक्ता वाक्। घोष इति वाङ्नाम। (निघं०१.११)। (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (देवजामिः) यो देवैस्सह जमति सः (इरज्यन्त) प्राप्नुवन्तु (यत्) ये (शुरुधः) ये सद्यो रुन्धन्ति ते (विवाचि) विविधासु विद्यासु प्रवृत्ता वाक् तस्याम् (नहि) निषेधे (स्वम्) स्वकीयम् (आयुः) जीवनम् (चिकिते) जानाति (जनेषु) मनुष्येषु (तानि) (इत्) एव (अंहांसि) अधर्मयुक्तानि कर्माणि (अति) (पर्षि) पूरयसि (अस्मान्) ॥२॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्या ! यथा विद्वांसो धर्म्ये वर्त्तेरँस्तथा यूयमपि वर्त्तध्वम्, ब्रह्मचर्यादिना स्वकीयमायुर्वर्धयत ॥२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो! जसे विद्वान लोक धार्मिक व्यवहार करतात, तसे तुम्हीही वागा. ब्रह्मचर्याने आपले आयुष्य वाढवा. ॥ २ ॥