पिबा॒ सोम॑मिन्द्र॒ मन्द॑तु त्वा॒ यं ते॑ सु॒षाव॑ हर्य॒श्वाद्रिः॑। सो॒तुर्बा॒हुभ्यां॒ सुय॑तो॒ नार्वा॑ ॥१॥
pibā somam indra mandatu tvā yaṁ te suṣāva haryaśvādriḥ | sotur bāhubhyāṁ suyato nārvā ||
पिब॑। सोम॑म्। इ॒न्द्र॒। मन्द॑तु। त्वा॒। यम्। ते॒। सु॒साव॑। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। अद्रिः॑। सो॒तुः। बा॒हुऽभ्या॑म्। सुऽय॑तः। न। अर्वा॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब नव ऋचावाले बाईसवें सूक्त का प्रारम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्य क्या करके कैसा हो, इस विषय को उपदेश करते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ मनुष्यः किं कृत्वा कीदृशो भवेदित्याह ॥
हे हर्यश्वेन्द्र ! त्वमर्वा न सोमं पिब यमद्रिः सुषाव यः सोतुः सुयतस्ते बाहुभ्यां सुषाव स त्वा मन्दतु ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात इंद्र, राजा, शूर सेनापती, अध्यापक, अध्येता, परीक्षा देणारे व उपदेश करणाऱ्यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.