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असा॑वि दे॒वं गोऋ॑जीक॒मन्धो॒ न्य॑स्मि॒न्निन्द्रो॑ ज॒नुषे॑मुवोच। बोधा॑मसि त्वा हर्यश्व य॒ज्ञैर्बोधा॑ नः॒ स्तोम॒मन्ध॑सो॒ मदे॑षु ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

asāvi devaṁ goṛjīkam andho ny asminn indro januṣem uvoca | bodhāmasi tvā haryaśva yajñair bodhā naḥ stomam andhaso madeṣu ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

असा॑वि। दे॒वम्। गोऽऋ॑जीकम्। अन्धः॑। नि। अ॒स्मि॒न्। इन्द्रः॑। ज॒नुषा॑। ई॒म्। उ॒वो॒च॒। बोधा॑मसि। त्वा॒। ह॒रि॒ऽअ॒श्व॒। य॒ज्ञैः। बोध॑। नः॒। स्तोम॑म्। अन्ध॑सः। मदे॑षु ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:21» मन्त्र:1 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब दश ऋचावाले इक्कीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (हर्यश्व) मनोहर घोड़ोंवाले ! जो (अन्धः) अन्न (असावि) उत्पन्न होता उसकी तथा (जनुषा) जन्म से अर्थात् उत्पन्न होते समय से (ईम्) ही (गोऋजीकम्) भूमि के कोमलता से प्राप्त कराने और (देवम्) देनेवाले को (इन्द्रः) विद्या और ऐश्वर्ययुक्त जन (उवोच) कहे वा जिसके निमित्त (त्वा) आप को (नि, बोधामसि) निरन्तर बोधित करें (अस्मिन्) इस व्यवहार में आप (अन्धसः) अन्न आदि पदार्थ के (मदेषु) आनन्दों में (यज्ञैः) विद्वानों के सङ्ग आदि से (नः) हम लोगों को (बोध) बोध देओ और (स्तोमम्) प्रशंसा की प्राप्ति कराओ ॥१॥
भावार्थभाषाः - जो मनुष्य पृथिवी आदि से धान्य आदि को प्राप्त होकर विद्या को प्राप्त होते हैं और जो विद्वानों के सङ्ग से समस्त विद्या के रहस्यों को ग्रहण करते हैं, वे कभी दुःखी नहीं होते हैं ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ विद्वान् किं कुर्य्यादित्याह ॥

अन्वय:

हे हर्यश्व! यदन्धोऽसावि तज्जनुषे गोऋजीकं देवमिन्द्र उवोच यस्मिँस्त्वा नि बोधामस्यस्मिँस्त्वमन्धसो मदेषु यज्ञैर्नो बोध स्तोमं प्रापय ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (असावि) सूयते (देवम्) दातारम् (गोऋजीकम्) गोर्भूमेर्ऋजुत्वेन प्रापकम् (अन्धः) अन्नम् (नि) (अस्मिन्) व्यवहारे (इन्द्रः) विद्यैश्वर्यः (जनुषा) जन्मना (ईम्) (उवोच) उच्यात् (बोधामसि) बोधयेम (त्वा) त्वाम् (हर्यश्व) कमनीयाश्व (यज्ञैः) विद्वत्सङ्गादिभिः (बोध) बोधय। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (स्तोमम्) प्रशंसाम् (अन्धसः) अन्नादेः (मदेषु) आनन्देषु ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः! पृथिव्यादिभ्यो धान्यादिं प्राप्य विद्यां प्राप्नुवन्ति ये च विद्वत्सङ्गेन सकलविद्यारहस्यानि गृह्णन्ति ते कदाचिद् दुःखिनो न जायन्ते ॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

या सूक्तात राजा, प्रजा, विद्वान, इंद्र, मित्र, सत्य, गुण याचना इत्यादी गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची या पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

भावार्थभाषाः - जी माणसे पृथ्वीवरील धान्य वगैरे प्राप्त करून विद्या प्राप्त करतात ती विद्वानांच्या संगतीने संपूर्ण विद्यांचे रहस्य ग्रहण करतात, ती कधीही दुःखी होत नाहीत. ॥ १ ॥