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यु॒ध्मो अ॑न॒र्वा ख॑ज॒कृत्स॒मद्वा॒ शूरः॑ सत्रा॒षाड्ज॒नुषे॒मषा॑ळ्हः। व्या॑स॒ इन्द्रः॒ पृत॑नाः॒ स्वोजा॒ अधा॒ विश्वं॑ शत्रू॒यन्तं॑ जघान ॥३॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yudhmo anarvā khajakṛt samadvā śūraḥ satrāṣāḍ januṣem aṣāḻhaḥ | vy āsa indraḥ pṛtanāḥ svojā adhā viśvaṁ śatrūyantaṁ jaghāna ||

पद पाठ

यु॒ध्मः। अ॒न॒र्वा। ख॒ज॒ऽकृत्। स॒मत्ऽवा॑। शूरः॑। स॒त्रा॒षाट्। ज॒नुषा॑। ई॒म्। अषा॑ळ्हः। वि। आ॒से॒। इन्द्रः॑। पृत॑नाः। सु॒ऽओजाः॑। अध॑। विश्व॑म्। श॒त्रु॒ऽयन्त॑म्। ज॒घा॒न॒ ॥३॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:20» मन्त्र:3 | अष्टक:5» अध्याय:3» वर्ग:1» मन्त्र:3 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:3


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह कैसा होकर क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो राजा (इन्द्रः) बिजुली के समान (जनुषा) जन्म से (स्वोजाः) शुभ अन्न वा पराक्रम जिसके विद्यमान (युध्मः) जो युद्ध करनेवाला (अनर्वा) जिसके घोड़े विद्यमान नहीं जो (अषाळ्हः) शत्रुओं से न सहने योग्य (खजकृत्) सङ्ग्राम करनेवाला (समद्वा) जो मत्त प्रमत्त मनुष्यों को सेवता (शूरः) शत्रुओं को मारता (सत्राषाट्) जो यज्ञों के करने को सहता और (पृतनाः) अपनी सेनाओं को पाले (अध) इसके अनन्तर (वि, आसे) विशेषता से मुख के सम्मुख (विश्वम्) सब (शत्रूयन्तम्) शत्रुओं की कामना करनेवाले को (ईम्) सब ओर से (जघान) मारे वही शत्रुओं को जीत सके ॥३॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! श्रेष्ठ राजगुणों सहित, दीर्घ ब्रह्मचर्य्य से द्वितीय जन्म अर्थात् विद्या जन्म का कर्त्ता, पूर्ण बल पराक्रमयुक्त, धार्मिक हो वह सूर्य के समान दुष्ट शत्रुओं को अन्यायरूपी अन्धकार को निवारे, वही सब का आनन्द देनेवाला हो ॥३॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स कीदृशो भूत्वा किं कुर्यादित्याह ॥

अन्वय:

यो राजेन्द्रो जनुषा स्वोजा युध्मोऽनर्वाऽषाळ्हः खजकृत्समद्वा शूरः सत्राषाडषाळ्हः पृतनाः स्वसेनाः पालयेदध व्यासे विश्वं शत्रूयन्तमीं जघान स एव शत्रून् विजेतुं शक्नुयात् ॥३॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युध्मः) योद्धा (अनर्वा) अविद्यमाना अश्वा यस्य सः (खजकृत्) यः स्वजं सङ्ग्रामं करोति सः। खज इति सङ्ग्रामनाम। (निघं०२.१७)। (समद्वा) यो मदेन सह वर्त्तमानान् वनति सम्भजति सः (शूरः) शत्रूणां हिंसकः (सत्राषाट्) यः सत्राणि बहून् यज्ञान् कर्त्तुं सहते (जनुषा) जन्मना (ईम्) सर्वतः (अषाळ्हः) यः शत्रुभिः सोढुमशक्यः (वि) (आसे) मुखे (इन्द्रः) विद्युदिव (पृतनाः) सेनामनुष्यान् वा (स्वोजाः) शोभनमोजः पराक्रमोऽन्नं वा यस्य सः (अध) अथ (विश्वम्) सर्वम् (शत्रूयन्तम्) शत्रून् कामयमानम् (जघान) हन्यात् ॥३॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या ! यो वरराजगुणसहितो दीर्घेण ब्रह्मचर्येण द्वितीयजन्मनः कर्ता पूर्णबलपराक्रमो धार्मिकः स्यात् स सूर्य्यवद्दुष्टाञ्छत्रूनन्यायान्धकारं निवारयेत्स एव सर्वेषामानन्दप्रदो भवेत् ॥३॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जो श्रेष्ठ राजगुणांनी युक्त (राजा) दीर्घ ब्रह्मचर्य पालन करून द्वितीय विद्या जन्माचा कर्ता, पूर्ण बल पराक्रमयुक्त धार्मिक असतो तो सूर्याप्रमाणे दुष्ट शत्रूंचे अन्यायरूपी अंधकाराचे निवारण करतो तोच सर्वांना आनंद देणारा असतो. ॥ ३ ॥