उ॒ग्रो ज॑ज्ञे वी॒र्या॑य स्व॒धावा॒ञ्चक्रि॒रपो॒ नर्यो॒ यत्क॑रि॒ष्यन्। जग्मि॒र्युवा॑ नृ॒षद॑न॒मवो॑भिस्त्रा॒ता न॒ इन्द्र॒ एन॑सो म॒हश्चि॑त् ॥१॥
ugro jajñe vīryāya svadhāvāñ cakrir apo naryo yat kariṣyan | jagmir yuvā nṛṣadanam avobhis trātā na indra enaso mahaś cit ||
उ॒ग्रः। ज॒ज्ञे॒। वी॒र्या॑य। स्व॒धाऽवा॑न्। चक्रिः॑। अपः॑। नर्यः॑। यत्। क॒रि॒ष्यन्। जग्मिः॑। युवा॑। नृ॒ऽसद॑नम्। अवः॑ऽभिः। त्रा॒ता। नः॒। इन्द्रः॑। एन॑सः। म॒हः। चि॒त् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पञ्चमाष्टक के तीसरे अध्याय तथा दश ऋचावाले बीसवें सूक्त का आरम्भ है, जिसके पहले मन्त्र में कैसा राजा श्रेष्ठ हो, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ कीदृशो राजा श्रेष्ठः स्यादित्याह ॥
यद्यो नर्यः स्वधावाञ्चकिरुग्रो युवा नृषदनं जग्मिरवोभिः पालनं करिष्यँस्त्राता सूर्योऽपश्चिदिवेन्द्रो वीर्याय जज्ञे मह एनसो नोऽस्मान् पृथग्रक्षति स एव राजा भवितुं योग्यः ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात राजा, सूर्य, बलिष्ठ, सेनापती, सेवक, अध्यापक, अध्येता, मित्र, दाता व रचनाकारांचे कृत्य व गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.