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देवता: इन्द्र: ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

इन्द्रे॑णै॒ते तृत्स॑वो॒ वेवि॑षाणा॒ आपो॒ न सृ॒ष्टा अ॑धवन्त॒ नीचीः॑। दु॒र्मि॒त्रासः॑ प्रकल॒विन्मिमा॑ना ज॒हुर्विश्वा॑नि॒ भोज॑ना सु॒दासे॑ ॥१५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

indreṇaite tṛtsavo veviṣāṇā āpo na sṛṣṭā adhavanta nīcīḥ | durmitrāsaḥ prakalavin mimānā jahur viśvāni bhojanā sudāse ||

पद पाठ

इन्द्रे॑ण। ए॒ते। तृत्स॑वः। वेवि॑षाणाः। आपः॑। न। सृ॒ष्टाः। अ॒ध॒व॒न्त॒। नीचीः॑। दुः॒ऽमि॒त्रासः॑। प्र॒क॒ल॒ऽवित्। मिमा॑नाः। ज॒हुः। विश्वा॑नि। भोज॑ना। सु॒ऽदासे॑ ॥१५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:18» मन्त्र:15 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:26» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:2» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

किस के साथ कौन क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - जो (एते) ये (इन्द्रेण) परमैश्वर्ययुक्त राजा के साथ (तृत्सवः) शत्रुओं को मारनेवाले (वेविषाणाः) शत्रुओं के बलों को व्याप्त होते हुए (आपः) जलों के (न) समान (सृष्टाः) शत्रुओं पर नियम से रक्खे और (विश्वानि) समस्त (भोजना) भोजनों को (मिमानाः) उत्पन्न करते हुए जो (दुर्मित्रासः) दुष्ट मित्रोंवाले हों उनकी जो सेना हैं वे (नीचीः) नीचे जाती और (अधवन्त) कम्पती हैं उन पर जो शस्त्र अस्त्रों को (जहुः) छोड़ते हैं और जो परमैश्वर्ययुक्त राजा (सुदासे) श्रेष्ठ देनेवाले के निमित्त (प्रकलवित्) अच्छे प्रकार संख्या का जाननेवाला है, वे सब विजयभागी होते हैं ॥१५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जिनकी समुद्र की तरङ्गों के समान, उत्साहयुक्त, बलिष्ठ सेना हों, वे शत्रुओं की सेनाओं को नीचे गिरा शीघ्र उन्हें जीत सकते हैं ॥१५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

केन सह के किं कुर्युरित्याह ॥

अन्वय:

य एत इन्द्रेण सहितास्तृत्सवो वेविषाणा आपो न सृष्टा विश्वानि भोजना मिमानास्सन्तो ये दुर्मित्रासः स्युस्तेषां याः सेनाः ता नीचीरधवन्त तेषामुपरि शस्त्रास्त्राणि जहुर्यश्चेन्द्रः सुदासे प्रकलविदस्ति ते सर्वे विजयभाजो भवन्ति ॥१५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इन्द्रेण) परमैश्वर्येण युक्तेन राज्ञा सह (एते) पूर्वोक्ता वीराः (तृत्सवः) शत्रूणां हिंसकाः (वेविषाणाः) शत्रुबलानि व्याप्नुवन्तः (आपः) जलानि (न) इव (सृष्टाः) शत्रूणामुपरि नियताः कृताः (अधवन्त) धुन्वन्ति (नीचीः) अधोगताः (दुर्मित्रासः) दुष्टा मित्राः सखायो येषां ते (प्रकलवित्) यः प्रकृष्टं कलनं संख्यां वेत्ति सः (मिमानाः) उत्पादयन्तः (जहुः) जहति (विश्वानि) सर्वाणि (भोजना) भोजनानि पालनानि भोक्तव्यानि वा (सुदासे) सुष्ठु दातरि ॥१५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालुप्तोपमालङ्कारः। येषां समुद्रतरङ्गा इव उत्साहिता बलिष्ठाः सेनाः स्युस्ते शत्रुसेनास्सद्योऽधो निपात्य जेतुं शक्नुवन्ति ॥१५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्यांची सेना समुद्राच्या तरंगाप्रमाणे उत्साहयुक्त व बलवान असते ते शत्रूंच्या सेनेचा पाडाव करून तात्काळ त्यांना जिंकू शकतात. ॥ १५ ॥