उ॒प॒सद्या॑य मी॒ळ्हुष॑ आ॒स्ये॑ जुहुता ह॒विः। यो नो॒ नेदि॑ष्ठ॒माप्य॑म् ॥१॥
upasadyāya mīḻhuṣa āsye juhutā haviḥ | yo no nediṣṭham āpyam ||
उ॒प॒ऽसद्या॑य। मी॒ळ्हुषे॑। आ॒स्ये॑। जु॒हु॒त॒। ह॒विः। यः। नः॒। नेदि॑ष्ठम्। आप्य॑म् ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब पन्द्रहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में अतिथि कैसा हो, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथाऽतिथिः कीदृशो भवतीत्याह ॥
हे मनुष्या ! यो नो नेदिष्ठमाप्यं प्राप्नोति तस्मै मीळ्हुष उपसद्यायाऽऽस्ये हविर्जुहुत ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नीच्या दृष्टांताने राजा व राणीच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.