स॒मिधा॑ जा॒तवे॑दसे दे॒वाय॑ दे॒वहू॑तिभिः। ह॒विर्भिः॑ शु॒क्रशो॑चिषे नम॒स्विनो॑ व॒यं दा॑शेमा॒ग्नये॑ ॥१॥
samidhā jātavedase devāya devahūtibhiḥ | havirbhiḥ śukraśociṣe namasvino vayaṁ dāśemāgnaye ||
स॒म्ऽइधा॑। जा॒तऽवे॑दसे। दे॒वाय॑। दे॒वऽहू॑तिभिः। ह॒विःऽभिः॑। शु॒क्रऽशो॑चिषे। न॒म॒स्विनः॑। व॒यम्। दा॒शे॒म॒। अ॒ग्नये॑ ॥१॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब तीन ऋचावाले चौदहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में संन्यासी की सेवा कैसे करनी चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अथ यतिः किंवत्सेवनीय इत्याह ॥
हे मनुष्या ! यथर्त्विग्यजमानाः समिधा हविर्भिरग्नये प्रयतन्ते तथा नमस्विनो वयं जातवेदसे शुक्रशोचिषे देवाय यतयेऽन्नादिकं दाशेम ॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)या सूक्तात अग्नीच्या दृष्टांताने यती व गृहस्थाच्या कृत्याचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.